Thursday 16 October 2014

A. RAMACHANDRAN


ययाति आधुनिक मनुष्य का प्रतीक
. रामचंद्रन से वेदप्रकाश भारद्वाज की बातचीत 

युवा अवस्था में आप संगीत से जुड़े और पेशेवर गायक के रूप में भी काम किया। उसके बाद आप पूरी तरह पेंटिंग से जुड़ गये। संगीत छोड़ने का कारण क्या रहा?

बात यह है कि शुरू में मैंने संगीत सीखा और कार्यक्रम भी किये लेकिन मुझे शुरू से ही पता था कि मेरा क्षेत्र पेंटिंग है। दरअसल, उस समय मेरे परिवार में, और केरल में भी, जो प्रतिष्ठा और स्वीकृति संगीत के लिए थी, वह कला के लिए नहीं थी। कला के बारे में आज भी केरल में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है और ही उसमें लोगों की अधिक रुचि है। उनका झुकाव संगीत की तरफ अधिक है। उस समय उस स्थिति में मेरे पास ऐसा कोई विकल्प नहीं था कि  मैं संगीत को अनदेखा कर पूरी तरह कला में डूब जाऊं। बाद में जब केरल विश्वविद्यालय की छात्रवृत्ति पर मुझे शांति निकेतन में कला अध्ययन का अवसर मिला तो मैंने संगीत को अलविदा कह दिया और पूरी तरह कला साधना में लग गया। संगीत को अलविदा कहने का एक और भी कारण था। केरल में जो दक्षिण भारतीय संगीत प्रचलित है उसमें मैंने पाया कि उसमें एक कलाकार के लिए नया कुछ करने की गुंजाइश नहीं है। दक्षिण भारतीय संगीत को इतने सालों इतना अधिक व्यवस्थित किया है, उसमें इतने अनुशासन और प्रतिबंध हैं कि कलाकार चाहकर भी उसमें कुछ नया नहीं जोड़ पाता। उत्तर भारतीय संगीत में भी यह सब है फिर भी उसमें कलाकार को एक सीमा तक छूट होती है कि वह अपने मन का कुछ कर सके, उसमें कुछ नया जोड़ सके। दक्षिण भारतीय संगीत में यह संभव नहीं है। उदाहरण के लिए यदि त्यागराजा या अन्य की बंदिशों को लें तो उनमें पहली पंक्ति से लेकर अंतिम पंक्ति तक किस पंक्ति को कितनी बार दोहराना है, स्वर और संगीत, उसमें सब कुछ पहले से तय है। उनमें किसी तरह की छूट कलाकार नहीं ले सकता। इसलिए संगीतकार, चाहे वो गायक हो या वादक, उन्ही बंदिशा के अनुरूप गाते-बजाते हैं। दक्षिण भारतीय संगीत में कोई नया काम या मौलिक काम हुआ ही नहीं ऐसा मैं नहीं कहता, रामनाथन जैसे संगीतकार हुए हैं जिन्होंने दक्षिण भारतीय संगीत के विकास का काम किया है, इसके बावजूद संगीत में उस तरह का विकास नहीं हो सकता जिस तरह का कला के क्षेत्र में हुआ है। यहां तक कि पूरे उत्तर भारतीय संगीत में एक कुमार गंधर्व ही हैं जिन्होंने कुछ नया किया। इसके विपरीत कला के क्षेत्र में लगातार कुछ कुछ नया होता रहा है। उसमें लगातार विकास होता रहा है। हमारे यहां साहित्य को लेकर क्या स्थिति है, ये तो मुझे पता नहीं परंतु कला के क्षेत्र में जितनी स्वतंत्रता है उतनी किसी और क्षेत्र में नहीं है। चित्रकला के क्षेत्र में एक कलाकार अपनी निजी पहचान बना सकता है, अपने मन के अनुरूप कुछ नया कर सकता है। चित्रकला की एक विशेषता यह भी है कि एक पेंटिंग जो आज है, सौ साल बाद भी वही रहेगी, बशर्ते वह नष्ट हो जाए। उसके साथ जो दर्शक का संवाद होता है वह हमेशा कायम रहता है, भले ही कलाकार जिंदा हो या हो। फिल्म और संगीत के साथ यह संभव नहीं है। एक कलाकृति हर तरह की सीमा से मुक्त होती है। जैसे यदि बुद्ध की कोई प्रतिमा है और उसका हाथ टूटा हुआ है तब भी वह अपना अर्थ रखती है, उसे संग्रहालय में रख सकते हैं। यहां तक  कि किसी प्रतिमा का केवल सिर हो या सिर बिना धड़ हो या केवल हाथ हो, तब भी वह अपना एक अर्थ रखती है। सैकड़ो-हजारों साल बाद भी संग्रहालय में कोई व्यक्ति उसके सामने खड़ा हो तो एक तरह की तरंग महसूस कर सकता है, उससे संवाद कर सकता है। यहां तक कि क्षतिग्रस्त पेंटिंग भी अपना अर्थ रखती है। इसके विपरीत यदि किसी गायब का रिकार्ड क्षतिग्रस्त हो जाए, या किसी फिल्म का प्रिंट खराब हो जाए तो उससे आप पूरी तरह संवाद कायम नहीं कर सकते। इसीलिए चित्रकला हो या शिल्प, वह हर काल में जीवित रहता है।  दूसरी बात यह कि भाषा के विकास के पहले चित्रकला ही अभिव्यक्ति का माध्यम थी। वह भाषा तो नहीं थी परंतु आदि मानव की चित्र बनाने या शिल्प बनाने में जो प्रवीणता थी, वह शुरू से ही थी। हमारी पुरानी भाषाएं, चाहे वह हडप्पा कालीन हो या अन्य देशों की, वह चित्रात्मक थीं। तो मानव सभ्यता में चित्र और मूर्तियां पहले आयीं, भाषा बाद में। इसीलिए वे लंबे समय तक मानव समाज में अभिव्यक्ति और संवाद का माध्यम रहीं और आज भी संवाद करती हैं, यह कला की बहुत बड़ी खूबी है। भाषा को समझने के लिए, उसका इस्तेमाल करने की क्षमता हासिल करने के लिए आपको उसे सीखना पड़ता है। आप कह सकते हैं कि प्रेमचंद हिंदी के महान लेखक हैं परंतु उनकी महानता को समझने के लिए आपको हिंदी का ज्ञान जरूरी है, और साथ ही प्रेमचंद ने किस तरह भाषा का इस्तेमाल किया यह सीखना-समझना जरूरी है। उसके बाद ही आप उसे समझ सकते हैं, विश्लेषित कर सकते हैं। कला में इसकी जरूरत नहीं पड़ती। वैसे आजकल कहा जाता है कि लोग हर किस्म की कला की समझ नहीं रखते। होता है, कला को समझने के लिए आपको पहल करनी होती है---- देखें, बस इसके अलावा कुछ नहीं। अलबत्ता आजकल कला को लेकर कई तरह के सिद्धांत खड़े कर दिये गये हैं जो संप्रेषण में बाधक होते हैं। पुराने जमाने से कला के साथ जो संप्रेषण, जो संवाद होता रहा है उसे हमने सीमारेखाओं में बांध दिया है। ऐसे में होता यह है कि लोग कलाकार से उसकी कृति का अर्थ पूछने लगते हैं। यदि कलाकार अच्छा वक्ता है तो लोग कहते हैं कि कितना महान कलाकार है, कितनी अच्छी तरह से समझाया। लेकिन इसमें कलाकार की भाषा और अभिव्यक्ति क्षमता ही सामने पाती है, कला और उसका अर्थ कहीं पीछे रह जाता है, क्योंकि, लोग कलाकार से संवाद करते हैं, कला से नहीं। एक कलाकृति हर काल में अपना संवाद खुद कायम करती है, यदि वह किसी विशेष विषय या समय से बंधी हो।
कई कलाकार हैं जो किसी विशेष संदर्भ में काम करते हैं, जैसे गुजरात के दंगे हा या बिहार का भागलपुर कांड या देश के विभाजन का संदर्भ, तो वह कलाकृति उसी समय-संदर्भ को व्यक्त करती है और लोग भी उसमें सिर्फ वही देखते हैं। लोग उसमें विषय देखते हैं, कला नहीं। बहुत सारे कला सिद्धांतों को पढ़ने-पढ़ाने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि कला को किसी भी तरह के सिद्धांत की जरूरत नहीं होती, किसी भी तरह के संदर्भ की जरूरत नहीं होती। यह मेरा निजी अनुभव भी है कि दुनिया में जहां भी मैं गया हूं, वहां कलादीर्घाओं और संग्रहालयों में मैं घंटों किसी कृति को बिना किसी सिद्धांत या संदर्भ के देखता रहा हूं। यहां तक कि कई बार तो मैं यह भी नहीं जानता था कि वह कृति किस कलाकार की है, फिर भी वह मुझे आकर्षित करती थी, मुझसे संवाद करती थी। मैं समझता हूं कि यही कला की सबसे बड़ी सफलता है।

दो कला माध्यमों के रूप में क्या संगीत और चित्रकला में कोई संबंध होता है या हो सकता है?

दोनों में सैद्धांतिक रूप से तो एक संबंध होता है या विषय के स्तर पर कि हमारे यहां रागमालाओं पर चित्र बनाने की परंपरा रही है। विभिन्न कालखंडों में अलग-अलग कलाकारों ने विभिन्न रागों को चित्ररूप दिया है। लेकिन इतने भर से वे अच्छी कृतियां नहीं हो जातीं। वे अच्छी कृतियां तब जब कला के स्तर पर भी वे अच्छी हों। इसे यूं भी कह सकते हैं कि जिस तरह रामायण पर पेंटिंग बनायी, उसी तरह रागों पर पेंटिंग बनायी। इसलिए संगीत का चित्रकला या शिल्प के साथ केवल विषय के स्तर पर ही संबंध संभव होता है। इसके अलावा किसी कलाकार को सृजन में संगीत से कोई लाभ होता हो या उसके साथ कोई रिश्ता बनता हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। मैं संगीत सुनता हूं क्योंकि वह मुझे अच्छा लगता है, इसलिए नहीं कि उससे मुझे पेंटिंग करने में कोई मदद मिलेगी। वैसे कलाकार कोई एकांगी या इकहरा व्यक्तित्व नहीं होता। यदि वह चित्रकार है तो उसमें संगीत या अन्य कलाएं भी होंगी। उसमें थोड़ा संगीत होता है, थोड़ा साहित्य होता है। फर्क यही होता है कि उसने किसी एक क्षेत्र में विकास किया और बाकी को उतना ही रहने दिया जितना किसी भी व्यक्ति में होता है।

लेकिन आपकी पेंटिंग की बात करें, विशेष रूप से ययाति, उर्वशी-पुरुरवा और राजस्थान श्रृंखला की तो उनमें एक तरह की संगीतात्मकता है, यानी एक स्तर पर उनमें संगीत की मौजूदगी है।


जिस संगीतात्मकता की बात आप कह रहे हैं वह मेरी पेंटिंग की एक विशेषता कही जा सकती है, और यह इसलिए हो पाती है क्योंकि मैं भारतीय संदर्भों में चित्र बनाने वाला एक आधुनिक कलाकार हूं। भारतीय जीवन में सजावटी चीजें, प्रकृति, पशु-पक्षी आते हैं। भारतीय लघु चित्र परंपरा में आप देखें तो उसमें जीवन को संपूर्णता में चित्रित करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। दरअसल कला संबंधी भारतीय दृष्टि जीवन को उसकी संपूर्णता में देखती है, उसमें जीवन के सभी पक्षों को समाहित किया जाता है, जिसमें संगीत भी शामिल है। यूरोपीय कला में मनुष्य और उसका समाज केंद्र में है, वही उसका अंतिम सत्य है, इसके विपरीत भारतीय दृष्टि में मानव संपूर्ण प्रकृति का एक अंश है। इसीलिए हमारे यहां लघु चित्रों में एक तरह की संपूर्णता रहती है, जिसमें मनुष्य के अलावा पूरी प्रकृति नजर आती है। कृष्ण यदि राधा के साथ प्यार कर रहे हैं, रासलीला रचा रहे हैं तो उसमें मयूर, हिरन, गाय, चिड़िया, नदी, पर्वत, पेड़ सब होंगे। इनके बिना कृष्ण-राधा का प्यार पूरा नहीं हो सकता, रासलीला संभव नहीं होगी। मतलब यह कि भारतीय कला एक ही चित्र में संपूर्ण सृष्टि को व्यक्त करती है। एक ही चित्र में पूरी दुनिया को देखती है। हम जीवन के केवल कुछ अंशों या क्षेत्रों में विशेषज्ञता में यकीन नहीं रखते। माइकल एंजेलो जब मानवाकृति बनाते हैं तो उसमें सारा बल शरीर सौष्ठव पर होता है, भारतीय कला में ऐसा नहीं होता। हमारे यहां यदि किसी चित्रकृति में अकेली औरत है तो उसके साथ कमल होगा, नदी होगी, पशु-पक्षी होगे।  दूसरी बात यह कि अपनी कला में मैं जो फार्म इस्तेमाल करता हूं, उसमें जो सजावटी तत्व या भावनाएं और गति व्यक्त करता हूं, उसे दृश्य रूप में संगीतात्मक कहा जा सकता है। जैसे आप गीत गोविंद सुनें तो उसकी कविता में भी संगीतमयी है। तो आप कह सकते हैं कि मेरी कला भी संगीतमयी है, क्योंकि संगीत और पेंटिंग दोनों ही कलाएं हैं। इसके अलावा एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मेरी पेंटिंग में जो संगीतात्मकता है वह जन्मजात है। मेरी काम करने की शैली ही संगीतात्मक है। इसलिए नहीं कि मैं संगीत जानता हूं, बल्कि इसलिए कि वह मेरे अंदर बजता रहता है।  

अपने शुरूआती दौर में आपने "काली पूजा' जैसी यथार्थवादी पेंटिंग बनायीं जो जीवन के कटु यथार्थ को, उसकी विभीषिका को व्यक्त करती थीं, उनमें उस समय के रक्तरंजित समाज की तस्वीर नजर आती थी। उसके बाद आप राजस्थान और उर्वशी, पुरुरवा, ययाति जैसे मिथकों पर काम करने लगे जो बहुत अधिक सौंदर्यपूर्ण हैं। सामाजिक यथार्थ से इस सौंदर्यबोध की तरफ  जाने का क्या कारण था?

कोई खास कारण नहीं था, सिवाय इसके कि ज्यादा से ज्यादा काम करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि हम कला के माध्यम से दुनिया को बदल नहीं सकते। कोई यदि ऐसा सोचता है कि वह कला के माध्यम से दुनिया को बदल देगा, तो यह गलतफहमी है। यदि ऐसा होता तो पिकासो की "गोर्निका' जो बहुत प्रभावशाली कृति है, उसके बाद युद्ध बंद हो जाने चाहिए थे। पर ऐसा नहीं हुआ। पिकासो के बाद भी युद्ध की विभीषिका को व्यक्त करने वाली अनेक पेंटिंग बनायी गयीं पर लड़ाइयां बंद नहीं हुर्इं। कला का काम लोगों को समझाना या उनमें किसी तरह की राजनीतिक, सामाजिक चेतना जगाना नहींं है। व्यक्ति को बदलने की बात तो धर्मों के ठेकेदार करते हैं कि मैं इसे हिंदू बना दूंगा, क्रिश्चयन बना दूंगा या मुसलमान बना दूंगा। धर्म के ठेकेदार ही समाज में धर्म के माध्यम से शांति लाने की, खुशहाली लाने के दावे करते हैं। कला का काम यह नहीं है। कला को लोगों के जीवन के सौंदर्य का एक हिस्सा है। पेंटिंग चाहे युद्ध पर हो या फूल पर, आप वेन गॉग की "सनफ्लावर' देखें या पिकासो की "गोर्निका',  बात एक ही है। वह एक कलात्मक कृति है। आप युद्ध पर पेंटिंग बनायें तब भी आपके रंग इतने आकर्षक होंगे कि वह एक सुंदर पेंटिंग बन जाती है। वह अंतत: एक पेंटिंग ही रहती है।


पेंटिंग तो हुई परंतु उसके जो सामाजिक सरोकार होते थे, एक कलाकार का जो समाज से, उसके यथार्थ से संवाद होता था?

वह सब अर्थहीन था। मुझे एक ही बात समझ में आयी कि हम कलाकार हैं, समाज सेवक नहीं। यदि मैं समाज सेवक होता तो मदर टेरेसा या बाबा आमटे की तरह बनता। मैंने पेंटिंग को इसलिए चुना क्योंकि  मैं जानता था कि पेंटिंग का ऐसा कोई काम नहीं है। अगर भीमसेन जोशी से कहा जाए कि वह गाना गाकर दंगों को रोक दें, लोगों को हिंसा से दूर कर दें तो यह संभव नहीं है। ऐसा ही पेंटिंग के साथ भी है। जब हम जानते हैं कि  इसका कोई फायदा नहीं है तो केवल फैशनेबुल बनने के लिए राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों को क्यों लें। यह साबित करने के लिए कि आप सामाजिक रूप से बहुत जिम्मेदार कलाकार हैं, कहें कि अहमदाबाद में जो दंगे हुए वे गलत हैं, युद्ध गलत है, ये सब आप कह रहे हैं परंतु आप काम क्या कर रहे हैं? आप पेंटिंग बना रहे हैं ना! तो आप पेंटिंग करिये, अन्य बातों को उसमें शामिल क्यों करते हैं। बात यह है कि आप जो पेंटिंग करेंगे वह खरीदेगा कौन? मैं यदि अहमदाबाद के बारे में एक पेंटिंग बनाऊं जहां लोग दंगों में मारे गयेजहां परिवार के परिवार तबाह हो गये, तो क्या मेरी पेंटिंग से उन्हें कोई फायदा होगा? नहीं, क्योंकि वह पेंटिंग खरीदेगा एक धनी आदमी। हम गरीबों के बारे में पेंटिंग बनायें तो उसे एक आदमी लाखों रुपये देकर खरीदेगा और अपने घर में ले जाएगा या संग्रहालय में रखेगा। इससे उन लोगों को क्या फायदा जिनके बारे में पेंटिंग बनायी गयी है। जिस तरह कालाबाजारी करने वाले  लोगों को लूटते हैं और धर्मात्मा दिखने के लिए मंदिर बनवाते हैं, मैं उस तरह काम नहीं कर सकता कि खुद को सामाजिक रूप से एक जिम्मेदार कलाकार साबित करने का ढोंग करूं और दंगों या गरीबी को बेचूं। 

लेकिन कला के माध्यम से सामाजिक जागरूकता तो लायी ही जा सकती है?

नहीं लायी जा सकती। आप गलत सोच रहे हैं। सामाजिक जागरूकता कला के जरिये नहीं आती, वह आती है समाचार पत्रों से, रेडियो से, टीवी से, लेकिन कभी कोई पेंटिंग देखकर नहीं आती। बहुत से कलाकार यह दावा करते हैं कि कला के जरिये समाज में परिवर्तन हो रहा है पर मुझे कभी नहीं लगा कि ऐसा कभी कुछ हुआ है। दंगों पर, गरीबी पर, भूख पर अनेक कलाकारों ने पेंटिंग बनायी हैं पर क्या उससे ये समस्याएं हल हुर्इं? देश के विभाजन के बारे में लिखे गये उपन्यास पढ़ने से क्या कश्मीर की समस्या हल हुई? बड़े-बड़े उपन्यास लिखे गये हैं जिनमें लिखा गया है कि राजनीति ने देश-समाज का कितना नुकसान किया है, सब कुछ गलत हो रहा है, पर क्या उन उपन्यासों का कोई असर है? कुछ नहीं। कहने में बहुत अच्छा लगता है कि मैं सामाजिक रूप से जिम्मेदार कलाकार या लेखक हूं, लेकिन उससे कोई फायदा नहीं है।

 ययाति भारतीय संस्कृति में कोई बहुत अच्छा चरित्र नहीं माना जाता फिर भी आपने उसे अपनी पेंटिंग का विषय क्यों बनाया?

क्योंकि वह वास्तविक आदमी था। मैं राम जैसे चरित्र को लेकर क्या करता जो डिस्टिल वाटर की तरह है जिसमें कोई दोष नहीं है। उनमें भी दोष था परंतु उनका व्यक्तित्व एक आयामी है जबकि मुझे अपनी पेंटिंग के लिए त्रिआयामी चरित्र चाहिए। ययाति में यह बात है। वह अपने समय का नायक था, महान योद्धा था परंतु अंतत: एक साधारण मनुष्य की तरह सांसारिक सुखों को भोगना चाहता था। उसे आप आधुनिक समय के मनुष्य का प्रतीक कह सकते हैं। हम क्या कर रहे हैं? हमको एयरकंडिशनर चाहिए, टेलीफोन चाहिए, कंप्यूटर चाहिए, हमें हर तरह के सुख-साधन चाहिएं, हम सारे सुख भोगना चाहते हैं। तो ययाति कौन है? हकीकत में हम सब ययाति ही हैं। हमारी इच्छाएं-आकांक्षाएं तो खत्म ही नहीं हो रहीं। यही वजह है कि मुझे ययाति आधुनिक युग का एकदम सही प्रतीक लगा। 

आपके बहुत से चित्रों में आपने खुद के चेहरे को किसी किसी रूप में चित्रित किया है, इसका क्या कारण है?

मैं अपनी पेंटिंग में खुद का व्यक्तिचित्र नहीं बनाता हूं बल्कि खुद को एक चिह्न के रूप में, एक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करता हूं कि वह मैं हूं जो पेंटिंग में चित्रित दुनिया को देख रहा हूं। प्रकृति हो, फूल हों, कीड़े-मकोड़े हों, पक्षी हों, मानव हों, ययाति हो, उर्वशी हो, सब मेरे माध्यम से ही पेंटिंग तक पहुंचते हैं। मैं खुद को अपने काम से अलग करके नहीं देखता। बहुत से कलाकार बड़ी-बड़ी बातें करते हैं परंतु अपनी कला के साथ उनका कोई रिश्ता नहीं होता, एक कलाकार के रूप में उसे बनाने के अलावा उनका अपनी कला से कोई रिश्ता नहीं होता। वो खुद को पेंट करें तब भी उससे उनका रिश्ता कायम नहीं हो पाता। मैं तो एक तरह से अपनी आत्मकथा पेंट करता जा रहा हूं। मैं जो कुछ कह रहा हूं वह एक व्यक्ति के रूप में बात कर रहा हूं। मैं जब कीड़ा बनाता हूं तो उसमें भी मैं ही बात कर रहा होता हूं। मुझे आप मेरे काम से अलग करके नहीं देख सकते। 

बाजार के संदर्भ में बात करें तो पिछले सालों में भारतीय कला बाजार विकसित तो हुआ ही है वह कलाकारों पर दबाव भी बना रहा है। एक औद्योगिक घराने द्वारा एमएफ हुसेन को सौ करोड़ रुपये में सौ पेंटिंग बनाने का प्रस्ताव सामने आया था। इसी तरह से कुछ और कलाकार भी अनुबंध के तहत काम कर रहे हैं। क्या इस तरह के प्रस्ताव पर बनने वाली कला या बाजार के दबाव में बनने वाली कला को कला कहा जा सकता है?

हुसेन साहब तो एक फिनामेनन थे। उन्होंने पांच सौ रुपये में पेंटिंग बेचनी शुरू की और इस मुकाम पर पहुंच गये, सिर्फ भारतीयों को यह सिखाने के लिए कि एक कलाकृति कितनी मूल्यवान होती है। यदि हुसेन साहब नहीं होते तो आज हमको कोई पूछता नहीं। आधुनिक कलाकार को सामाजिक प्रतिष्ठा के इस मुकाम पर पहुंचाने वाला, और उसे धन दिलाने वाला एकमात्र व्यक्ति कोई है तो वह एमएफ हुसेन ही है। आधुनिक भारतीय कलाकारों के लिए जितना कुछ हुसेन साहब ने किया, उतना किसी और कलाकार ने नहीं किया। आज सड़क पर चलने वाला हर आदमी हुसेन साहब के नाम और काम से वाकिफ है। उन्होंने माधुरी दीक्षित की बात करके या मदर टेरेसा की बात करके और इसी तरह की बातें करके हर दिन लोगों के दिमाग में हुसेन, हुसेन, हुसेन ---- एक नाम डाल दिया। उन्होंने छोटे-छोटे शहरों तक में जाकर अपना काम लोगों को दिखाकर कला के प्रति एक सामाजिक स्वीकार पैदा किया जो बहुत बड़ी बात है। वो नहीं होते तो आज आप बातचीत करने मेरे पास नहीं आते। 

बाजार से जुड़ा एक मुद्दा यह भी है कि वह सजावटी कला को अधिक बढ़ावा दे रहा है। युवा कलाकार बाजार के प्रभाव में आकर आसानी से बिक सकने वाला काम कर रहे हैं। उनकी अपनी इच्छा क्या है या वे क्या करना चाहते थे, इससे वे दूर होते जा रहे हैं। 

वो कलाकार नहीं हैं। बहुत साधारण सी बात है कि जो अपना रास्ता छोड़ कर बाजार के बताये रास्ते पर चलने लगते हैं उनके अंदर अपना कुछ नहीं होता। आप देखें कि बंगाल में, और अन्य जगहों पर भी लोक कलाकार हर साल दुर्गा की मूर्तियां बनाते हैं और वे उसमें यह जानते हुए भी कि दुर्गा का यह रूप नहीं है, किसी लोकप्रिय अभिनेत्री का चेहरा बना देते हैं ताकि बाजार को भुना सकें। इस तरह के कलाकार हर काल में रहे हैं लघु चित्र हों, कालीघाट के चित्र हों या मुगल काल के चित्र, उसमें कलाकार उस समय के राजा-महाराजाओं, नवाबों, बेगमों के चेहरे बना दिया करते थे, या अन्य सामंती परिवारों के लोगों के चेहरे बना देते थे। हालांकि उस समय कुछ कलाकार हट कर भी काम करते थे। पर हम यह सब नहीं देखते, हम देखते हैं कि काम कितना अच्छा है। यदि कला के मानक पर वह अच्छा है तो कला है वर्ना नहीं। यदि कोई कलाकार बाजार से हट कर अच्छा काम करता है तो वह अच्छा ही कहा जाएगा भले ही बाजार में वह चल पाये। सत्यजित रे ने "शतरंज के खिलाड़ी' बनायी। वह भले ही बाजार में चल नहीं पायी परंतु मैं केवल यह देखता हूं कि वह एक अच्छी फिल्म है। कुछ कलाकार ज्यादा काम करते हैं, ज्यादा काम बेच लेते हैं तो कुछ कम, यह सब तो चलता ही रहा है। यह सब मेरी चिंता का विषय नहीं है। यह एक तरह से चरित्र का मामला है कि कुछ लोगों का चरित्र होता है कुछ का नहीं। 

पर बाजार एक तरह से कला पर नकारात्मक प्रभाव तो डाल ही रहा है?

नहीं, ऐसा नहीं है। यह सही है कि बाजार के प्रभाव में काम करने वाले कलाकार नहीं होते परंतु लोग यदि यह सोचते हैं कि कोई कलाकार भूखा रहकर ही काम करे तो महान कलाकार होगा, तो यह भी गलत है। कलाकार का बाजार तो होना ही चाहिए। उसका का काम तो बिकना ही चाहिए।

पर इससे नयी पीढ़ी की सृजनात्मकता भी तो प्रभावित हो रही है?

देखिये, बाजार किसी को कलाकार नहीं बनाता। मेरे साथ शांति निकेतन में करीब 150 विद्यार्थी थे जो कला का अध्ययन कर रहे थे। उनमें से हर एक तो रामचंद्रन नहीं बना ना! इसका मतलब है कि  मैं ही कलाकार बनने की क्षमता रखता था। बाजार में बिकने से ही कोई कलाकार नहीं हो जाता और ही भूखे मरने से कोई महान कलाकार होता है। कलाकार भूखा रहे या पैसा कमाए, यदि उस में कुछ है तो वह कलाकार के रूप में जीवन पाता है। जिसके अंदर कुछ नहीं है वह कलाकार के रूप में जिंदा नहीं रह सकता। व्यक्ति अलग-अलग तरह से मरता है। कोई कैंसर से मरता है तो कोई भूख से, कोई चोट लगने से मरता है तो कोई और किसी कारण से, पर मरता जरूर है। जब हम युवा थे तब कई युवा कलाकार थे जो कला से बहुत पैसा बना रहे थे। उस समय हमने उनकी तरह पैसा बनाने के बारे में  नहीं सोचा कि चलो बी. प्रभा जैसी पेंटिंग बनालें जो उस समय खूब बिकती थीं। पर हमने ऐसा नहीं किया। आज तो खरीदने वाले उस वक्त की तुलना में ज्यादा हैं। बदलना था तो हम उस वक्त बदलते जब पेंटिंग बेचना मुश्किल था। आज तो आप साधारण पेंटिंग बनाएं तब भी उसे खरीदने वाला मिल जाता है। उस समय तो चार-छह ही कलाकार थे जो बिकते थे। बाकी सब बैठे रहते थे। तैयब मेहता से पूछिये कि निजामुद्दीन में एक छोटे से फ्लैट में कैसे रहते थे? मैंने तीस साल तक नौकरी करके खुद को बचाया। आज कलाकार को ज्यादा पैसा मिल रहा है तो सब उसके बारे में बातें कर रहे हैं। उस वक्त पैसा नहीं था तो कलाकार की कोई परवाह भी नहीं करता था।

लेकिन तब भी तैयब मेहता की प्रतिष्ठा कला जगत में तो थी ही।

हां, लेकिन वह प्रतिष्ठा क्यों थी। इसलिए कि उन्होंने उस सस जमाने में बी. प्रभा की तरह काम नहीं किया। जो बात उस समय पर लागू होती थी, वही आज भी लागू होती है। आज जो बाजार के प्रभाव में आकर केवल बिकाऊ कला कर रहे हैं वो कुछ साल तो खूब पैसा कमाएंगे परंतु उसके बाद उनकी कहानी खत्म हो जाएगी। बतौर कलाकार जिंदा रहने के लिए आपको अपना कुछ अलग तरह का काम करना पड़ेगा। दूसरी बात, कैसी भी स्थिति हो, अच्छी या बुरी, आपको अपनी इच्छानुसार काम करने की हिम्मत दिखनी होगी। तीसरी बात, आपको किसी भी स्थिति से समझौता नहीं करना चाहिए। इन तीनों बातों पर अमल करने वाला ही कलाकार के रूप में जिंदा रह सकता है।

आपके चित्रों में जो पात्र हैं उनके चेहरे पर हमेशा एक तरह की उदासी रहती है। एक ऐसी उदासी जिसमें कुछ-कुछ खुशी की झलक भी मिलती है। ऐसा क्यों?

इसलिए कि मैं जिन लोगों को अपनी पेंटिंग में उतारता हूं उनका जीवन वैसा ही है जैसा मैं चित्रित करता हूं। मैं कई साल से राजस्थान के उदयपुर के निकट एक ग्रामीण क्षेत्र में जाकर कुछ समय रहता हूं। वह एक आदिवासी पिछड़ा इलाका है। कुल मिलाकर दो-तीन गांव हैं जहां के लोग मुझे जानते हैं और उन्हें मैं जानता हूं। वे दिहाड़ी मजदूर हैं जो सड़क बनाने, मकान बनाने का काम करते हैं या खेतीहर मजदूर के रूप में काम करते हैं। वे इसी तरह के काम करते हैं जो नियमित रूप से नहीं मिलते। उन्हें पौष्टिक भोजन नहीं मिलता। उनके बच्चे अधनंगे रहते हैं। वे सुंदर हैं पर उनके जीवन में इतने अभाव हैं कि उस सुंदरता को जल्दी ही धूमिल कर देते हैं। राजस्थान रेगिस्तानी इलाका है जिसमें बारिश के बाद छोटे-छोटे पौधे अपने आप उग आते हैं, उनमें फूल खिल जाते हैं। तब आप यकीन नहीं कर सकते कि यह रेगिस्तानी राजस्थान है। कहने का मतलब यह कि वहां के लोग भी ऐसे ही होते हैं। वे बहुत खूबसूरत होते हैं। वहां की बारह-तेरह साल की लड़की बहुत खूबसूरत होती है, एकदम ताजगी लिये। पर शादी के चार-पांच साल में दो-तीन बच्चों के जन्म के बाद उनकी वह सुंदरता, वह ताजगी समाप्त हो जाती है। ठीक बरसात में उगे पौधों की तरह जो मौसम बदलते ही समाप्त हो जाते हैं। फिर वे अगले साल बारिश में ही दिखाई देते हैं। मैं जिन लोगों के बीच जाता हूं उनका जीवन काल यदि पचास वर्ष मानें तो उन पचास वर्षों में केवल चार-पांच साल ऐसे होते हैं जो सुंदरता के होते हैं, बाकी तो केवल उदासी है। ऐसा नहीं है कि वे खुद को खुश नहीं रखना चाहते या इसके लिए कुछ करते नहीं हैं। वे बाबा रामदेव के भजन गाकर, प्रसाद बांटकर या ऐसे की जतन करके या फिर शादी-ब्याह के अवसर पर जीवन में खुश होते हैं। वह एक शुष्क इलाका है और उन लोगों के पास पशु भी नहीं होते कि आय का कोई साधन हो। वे एक तरह से भारत में हाशिये पर रहने वाले लोग हैं। वे नहीं जानते कि उनके गांवों और आसपास् के इलाके के बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है। वे केवल अपनी सीमित दुनिया में जीते हैं। पर वे पक्षियों की तरह सरल होते हैं। वे बहुत भोले होते हैं। उस तरह के लोगों की कल्पना हम शहरी जीवन में कर ही नहीं सकते। ऐसे लोग जब मेरी पेंटिंग में आकार पाते हैं तो उनके जीवन के सारे रंग उसमें होते हैं, और चूंकि उनके जीवन में उदासी ज्यादा है खुशी कम, इसलिए मेरी पेंटिंग में भी उदासी अधिक नजर आती है।  इसके साथ ही एक और बात है, राजस्थान के भूदृश्य देखने लायक होते हैं। वहां जीवन भले ही उतना संुदर हो परंतु प्रकृति बहुत सुंदर है। सुबह से शाम तक आप एक जगह बैठकर देखते रहें तो हर घंटे में प्रकाश बड़े ही नाटकीय दृश्य उपस्थित करता है। इसीलिए एक कलाकार के रूप में मुझे कोई जगह उतनी अच्छी नहीं लगती जितना राजस्थान। फिर राजस्थान के लोगों के जीवन में जो कलात्मकता है, उनके मकानों में, कपड़ों में, क्राफ्ट में, वह अन्य प्रदेशों में देखने को नहीं मिलती। मैं जिन लोगों के बीच जाता हूं उनके लिए कला कोई नयी चीज नहीं है। उनके सामने बैठकर आप स्केच करें तो उनमें उस तरह की उत्सुकता नहीं होती जैसी दिल्ली में देखने को मिलती है। दिल्ली में यदि आप कहीं बैठकर स्केच करें तो लोग आपको घेर लेंगे, आपकी स्केचबुक में झांकने लगेंगे। राजस्थान के लोग भी देखंगे परंतु आपका उतना ही सम्मान भी करेंगे। मैं वहां कभी चाय की दुकान पर चला जाता हूं तो वे मुझसे पैसे नहीं लेते। कहते हैं, आप तो कलाकार हैं, आपसे पैसे नहीं लेंगे। वहां रहकर काम करने की जितना स्वतंत्रता है वह कहीं और नहीं मिलती। हां, बंगाल में शांति निकेतन के निकट रहने वाले संथाल जरूर कलाकारों को सहयोग करते हैं परंतु जब मैं बिहार में गया था तो वहां के संथाल तो मुझे तीर लेकर मारने गये थे। 

कला शिक्षा का पाठ्यक्रम आज भी अंग्रेजों के समय का है। आप खुद भी कला शिक्षक रहे हैं। क्या आपको लगता है कि कला पाठ्यक्रम में परिवर्तन होना चाहिए, और होना चाहिए तो किस प्रकार का?

मेरा मानना है कि कला पाठ्यक्रम में नहीं बल्कि कला संस्थानों में ही परिवर्तन होना चाहिए। तीस साल तक कला शिक्षण के बाद मुझे लगता है कि  मैंने अपना समय व्यर्थ गंवाया। शांति निकेतन में जब मैं पढ़ता था तो यूजीसी सिस्टम नहीं था। वहां हम छात्र होकर भी शिक्षकों के साथ रहते थे। रात 11 बजे तक हम रामकिंकर बैज के साथ बैठ सकते थे, उन्हें काम करते देख सकते थे।  एक परिवार की तरह रहते-पढ़ते थे हम। आजकल जो ये नौ से चार बजे तक का कार्यक्रम है और पीरियड हैं, और जो यूजीसी का ढांचा है जिसमें अब कोर्स पीएच.डी. तक गया है, ये किसी को कलाकार नहीं बना सकता।  हमारे कला पाठ¬क्रम की समस्या यह है कि पढ़ने वाले अैर पढ़ाने वाले दोना मीडियाकर हैं। इसीलिए कला शिक्षा प्राप्त करने वाले बहुत कम कलाकार बन पाते हैं। ज्यादातर तो नौकरी मिली नहीं कि  कला को भूल जाते हैं। यह कला शिक्षकों के साथ भी होता है कि एक बार नौकरी मिली नहीं कि दो-चार साल तो कला साधना चलती है, फिर वे भी छुट्टियों, वेतनवृद्धियों आदि के चक्कर में उलझ जाते हैं। कला शिक्षण में कोई इस तरह का फार्मूला नहीं होता कि दो और दो चार होंगे। कला शिक्षण तो छात्र और शिक्षक के बीच का संवाद है। मुझे रामकिंकर बैज जैसे शिक्षक मिले, जिनसे मैं जितना ले सकता था, लिया। इसीलिए शांति निकेतन एक आदर्श था जिसमें देश-विदेश के छात्र एक साथ रहते थे, एक साथ खाते थे, आपस में संवाद करते थे, भले ही वे कला के छात्र हों या अर्थशास्त्र के या दर्शन या संगीत के। सब एक-दूसरे से कुछ कुछ सीखते थे। 
(यह बातचीत सन् 2005-2006 में हुई दो भागों में थी और उस समय हुसेन साहब हमारे बीच थे। अब वे नहीं रहे इसलिये उनके संदर्भ में कही गयी बातों में कुछ परिवर्तन किया गया है।)

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