Thursday 9 October 2014

अर्पिता सिंह की कला पर कुछ विचार some thoughts on art by Arpirta Singh

अर्पिता सिंह हमारे समय की ऐसी कलाकार हैं जिन्होंने हमेशा समकालीन विषयों को अपने चित्रों में एक नयी अभिव्यक्ति दी है। ललित कला अकादेमी ने उन्हें फैलोशिप प्रदान की है। हालांकि वे अब उस मुकाम पर हैं जहां उन्हें इस तरह के किसी सम्मान की जरूरत नहीं रह गयी है। एक ऐसे कलाकार के लिये, जिसने अपने लम्बे रचनात्मक जीवन में हर समय नयी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए एक सर्वकालिक प्रतिष्ठा अर्जित कर ली हो, उसे सम्मान देकर ललित कला अकादेमी खुद को सम्मानित कर रही है। अर्पिता सिंह की कला पर हम यहां एक छोटी सी टिप्पणी दे रहे हैं। वे ऐसी कलाकार हैं कि उनकी कला पर विचार करने के लिये एक पुस्तक कम होगी, फिर भी हमारी कोशिश है कि उनकी कला को समझने का एक छोटा सा प्रयास करें।


मानवीय भू-दृश्य
अर्पिता सिंह की कला पर कुछ विचार
वेद प्रकाश भारद्वाज
भारतीय समकालीन कलाकारों में जिन महिला कलाकारों ने अपनी अलग पहचान ही नहीं बनानी बल्कि भारतीय कला को एक दिशा भी दी है उनमें अर्पिता सिंह का नाम अग्रणी है। भारत की पहली आधुनिक महिला कलाकार अमृता शेरगिल थीं जिन्होंने पश्चिमी कला के मुहावरे का प्रयोग करते हुए भारतीयता में रंगे चित्रों की रचना की थी। उनके इस अवदान को नकारा नहीं जा सकता परन्तु यदि कलात्मक उपलब्धियों की दृष्टि से देखा जाए तो अर्पिता सिंह को इस बात का श्रेय दिया ही जाना चाहिए कि उन्होंने अपनी कला में ऐसे प्रयोग किये और उन तमाम विषयों को उठाया जो आमतौर पर लम्बे समय तक महिला कलाकारों के दायरे से बाहर रहे। हालांकि अर्पिता सिंह को महिला और पुरुष कलाकार जैसा कोई विभाजन स्वीकार नहीं है पर इसमें कोई संदेह नहीं कि एक महिला होने के कारण ही हम पाते हैं कि उनके आरम्भिक कामों में समाज में महिलाओं और बच्चियों की स्थिति को लेकर एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण मिलता है। यह आलोचनात्मक दृष्टिकोण ही उन्हें अपने समय में बड़ी कलाकार बनाता है जिसके चलते उनके बाद की पीढी की कलाकारों में अपने समय और समाज को देखने का एक नया नजरिया जोर पकड़ता गया। उनकी इसी आलोचनात्मक दृष्टि का विकास हम उनके बाद के कामों में पाते हैं। अपने आरम्भिक कला जीवन में अमूर्त भूदृश्य रचने वाली अर्पिता सिंह ने अपनी इसी आलोचनात्मक दृष्टि का प्रयोग करते हुए ऐसे मानवीय भूदृश्य रचे जो समकालीन जीवन के विभिन्न पक्षों को सामने रखते हैं। यदि यह कहा जाए कि वे हमारे समय में मानवीय भू-दृश्य रचने वाले महत्वपूर्ण कलाकारों में से एक हैं तो कुछ गलत नहीं होगा। अर्पिता सिंह के बाद ऐसी चित्रकारों की एक लम्बी फेहरिस्त बनायी जा सकती है जिन्हें एक सजग और विचारवान कलाकार कहा जा सकता है। यदि यह कहा जाए कि अर्पिता सिंह ने महिला कलाकारों के लिए सजावटी और शौकिया कला के दायरे को तोड़कर उनके लिए नया मार्ग प्रशस्त किया तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
पश्चिम बंगाल में 1937 में एक बंगाली परिवार में जन्मीं अर्पिता पारिवारिक कारणों से दिल्ली में आकर बस गयीं। यहीं उन्होंने स्कूल आफ आर्ट, दिल्ली पोलिटेक्नीक से कला की शिक्षा ग्रहण की। यहीं उनकी परमजित सिंह से मुलाकात हुई जो लम्बी मित्रता के बाद जीवन भर का साथ बन गयी और वे अर्पिता सिंह हो गयीं। 1959 में कला शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने भारत सरकार में काटेज इंडस्ट्रीज रेस्टोरेशन प्रोग्राम में नौकरी कर ली जहां पारम्परिक कलाकारों और बुनकरों से उनकी मुलाकात हुई और कहा जाता है कि उनका उनके काम पर प्रभाव भी पड़ा। हालांकि उस दौर में उनके चित्र श्वेत-श्याम और अमूर्त होते थे। परन्तु अस्सी के दशक में उन्होंने बंगाल की लोक कला के प्रभावित होकर काम किये जिनका विषय महिलाएं थी। उन चित्रों में उन्होंने महिलाओं को निजी और दैनिक कार्यों में व्यस्त पेंट किया था। शुरूआत में उन्होंने ज्यादातर कागज पर जलरंगों से चित्र बनाये थे।



उन्होंने 1990 के दशक में कैनवास पर तैल रंगों से काम शुरू किया जिसके कारण उनके काम में एक बड़ा परिवर्तन आया। यहीं से कैनवास के आकार के साथ-साथ उनकी कला का भी विस्तार शुरू हुआ। इस दौर में उन्होंने कुछ ऐसे चित्रों की भी रचना की जिनमें महिलाओं को अनावृत्त रचा गया था परन्तु उनमें उन्होंने महिला की कोमलता और संवेदनशीलता को उभारा, उनमें कहीं भी नग्नता या काम-भाव नहीं था। उसके बाद से उनके अनेक चित्रों में महिलाएं अनावृत्त आती गयीं परन्तु उस अनावृत्त देह का अर्थ-विस्तार अपने समय में महिलाओं की स्थिति के साथ-साथ मानव कार्य-व्यापार में बढती हिंसा पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी तक जाने लगा है। यदि यह कहा जाए कि उनका रचना संसार निजी से सार्वजनिक जीवन में प्रवेश कर गया तो कुछ गलत नहीं होगा।

एकबार एक बांग्ला पत्रिका के पूजा अंक के लिए उन्होंने आवरण चित्र बनाया जिसमें दुर्गा के हाथ में पिस्तौल दिखाने के कारण काफी हंगामा हुआ। अर्पिता सिंह ने उस चित्र में अपने समय में व्याप्त हिंसा को प्रतिकात्मक रूप में अभिव्यक्त किया था। दरअसल उनके बाद के कामों को देखें तो उनमें एक तरफ समाज में बढती हिंसा के प्रति एक आलोचनात्मक टिप्पणी लगातार नजर आती है। साथ ही उन्होंने महानगरीय जीवन के विरोधाभासों और राजनीतिक-प्रशासनिक विसंगतियों को भी अपना निशाना बनाया है। और यह सब करते हुए भी उन्होंने अपने चित्रों में कलात्मक गुणों को कतई कम नहीं होने दिया है।



अर्पिता सिंह अपने चित्रों में सतह पर रंगों का प्रयोग इस तरह करती हैं कि उसमें हमारे समय का तनाव साफ झलकता है। वे कैनवास पर अक्सर रंगों के एक-दूसरे पर थक्के से बनाती हैं जिससे एक तरह का टकराव और तनाव नजर आता है। रंगों में उनके यहां गुलाबी और नीले रंग का प्रयोग अधिक है परन्तु वे कई बार काले और सफेद रंग का भी प्रयोग करती हैं जो उनके आरम्भिक काम का मुख्य रंग रहा है। जलरंग चित्रों में भी वे अक्सर इसी तकनीक का इस्तेमाल करती हैं, बस वहां रंग अक्सर धूमिल रंगत वाले होते हैं। अर्पिता सिंह को कला शिक्षा के समय से ही भूदृश्यों में गहरी रुचि रही और इसीलिए वे शैलोज मुखर्जी की प्रिय छात्रा भी रहीं। उनके शुरूआती अमूर्त चित्रों में भूदृश्यों की ही संरचना थी जो बाद में उनके आकृतिमूलक कामों में भी जारी रही। इसीलिए वे प्रत्येक चित्र को एक मानवीय भू-दृश्य की तरह संयोजित करती हैं।


अपने चित्रों में वे विषय के अनुरूप अक्सर घरेलु चीजों को प्रतीक के रूप में रचती हैं परन्तु इसे विड़म्बना ही कहा जाएगा कि ज्यादातर कला आलोचक उनके काम को स्त्री को केंद्र में रखकर ही देखते हैं। और यही कारण है कि यह कह दिया जाता है कि उनके काम में समाज और परिवार में महिलाओं की स्थिति को व्यक्त किया गया है। इसमें कोई संदेह नही कि उनके आरम्भिक काम कें स्त्री केंद्र में होती थी जो कि स्वाभाविक भी है। यह सीधा-सीधा निजी अनुभवों का मामला होता है। एक पुरुष प्रधान समाज में जाहिर है कि एक स्त्री को कई तरह की विरोधाभासी स्थितियों से गुजरना पड़ता है जिसे एक स्त्री अधिक बेहतर तरीके से समझ सकती है। अर्पिता सिंह के साथ भी यही बात कही जा सकती है परन्तु केवल एक महिला चित्रकार होने के कारण उनके कला-जगत में जो पुरुष आते हैं उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाना न्यायोचित नहीं जान पड़ता। और यह बात इसलिए भी जरूरी जान पड़ती है कि वे महिला और पुरुष कलाकार जैसे विभाजन को स्वीकार नहीं करती हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि एक पुरुष जहां चीजों को दिमाग से अधिक देखता है वहीं एक महिला उन्हें दिल से देखती है और इसीलिए महिलाओं को अधिक संवेदनशील माना जाता है जो कई बार उनकी सीमा भी बन जाती है। परन्तु अर्पिता सिंह पर यह बात लागू नहीं होती क्योंकि वे अपने समय और समाज को एक स्त्री की संवेदनाओं के साथ-साथ बौद्धिक स्तर पर भी देखती रही हैं जिसका परिणाम वे चित्र हैं जिनमें वे अपने समय की सामाजिक-राजनीतिक विडम्बनाओं पर टिप्पणी करती दिखाई देती हैं।

इसका प्रमाण हमें उनके बाद के कामों में घरेलू चीजों के अलावा प्रमुखता से आये हथियार, कारें, हवाई जहाज, सैनिक और अक्सर झाडि़यों के पीछे छिपे हत्यारे भी हैं जो कहीं बैठे या जा रहे लोगों पर निशाना लगाये होते हैं। यहीं वे एक साथ बचपन की स्मृतियों के खिलौनों की जरह हथियारों, कारों, हवाई जहाज, गुलदस्ते आदि को अपनी परिपक्व कल्पना के साथ मिलाकर पेश करते हुए एक वृहद् समकालीन सरोकार को रचती नजर आती है। इसी का विस्तार उनके वे चित्र हैं जिनमें उन्होंने महानगरों की संरचना विसंगति और उसमें व्याप्त सामाजिक अन्याय पर भी एक कलात्मक टिप्पणी की है। ऐसे ही एक चित्र में उन्होंने दिल्ली को केंद्र में रखते हुए एक साथ प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों को रचा है। इस बड़े आकार के चित्र में उन्होंने जो दिल्ली के विकास के विरोधाभासों को अभिव्यक्ति दी है वह किसी भी बड़े शहर या किसी भी देश की राजधानी का अक्स हो सकता है क्योंकि आज वैश्विक स्तर पर देखें तो हालात हर जगह कम या अधिक एक जैसे ही नजर आते हैं।

बदते समय के संदर्भ भी उनके यहां कम नहीं हैं। एक तरफ वे जीवन पर बढते बाजार के दबाव को दो खरीदो दो फ्री जैसे चित्रों में व्यक्त करती हैं तो दूसरी तरफ विश ड्रीम जैसे म्यूरल में एकसाथ हमारे समय की भौतिक सांस्कृतिक आकांक्षाओं को आकार देती हैं। इसी प्रकार प्रार्थना, क्लासिफाइड फाइल, क्लासिफाइड विज्ञापन, ब्रेकफास्ट जैसे कई साधारण विषयों को भी अपने कला जगत में जगह देती हैं। इसी के साथ उनके काम में इधर कई शब्द अपने पूरे या अधूरे रूप में आते हैं तो कई अंक भी जगह पाते हैं परन्तु वे केवल प्रतीक भर रह कर उस भू-दृश्य का आधार बन जाते हैं जिसमें कलाकार ने एक कहानी को रचा है। एक कलाकार के रूप में वे जीवन को समग्रता में देखती हैं इसीलिए उनके यहां अक्सर इकहरी छवियां नहीं मिलतीं। किसी चित्र में एक आकृति के अकेले होने के बावजूद वे उसके आसपास ऐसा वातावरण रचती हैं कि वह अकेली रह कर एक व्यापक समुदाय का प्रतिनिधित्व करती प्रतीत होती हैं।


1 comment:

  1. शेयर करने के लिए धन्यवाद !! आदर्श विक्रम

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