कुछ भी बना देना भर कला नहीं है
जय झरोटिया से वेदप्रकाश
भारद्वाज की बातचीत
जब आप कला
के
क्षेत्र
में
आये
तब
माहौल
कैसा
था?
मैंने 1960
के दशक की
शुरूआत में कला
महाविद्यालय में प्रवेश
लिया थ। उस
समय तक कला के
बारे में मुझे
बहुत अधिक जानकारी
नहीं थी परंतु जैसे-जैसे समय
बीतता गया, कला
के बारे में
मेरी जानकारी बढ़ती
ग्यी और मेरा
जो बौद्धिक विकास
हुआ उसमें भी
कला की महत्त्वपूर्ण
भूमिका रही। शुरू
में तो लगता
था कि किसी
चीज को बनाना
ही कला है
पर कॉलेज की
पढ़ाई के दौरान
जब कला इतिहास
और अन्य विषयों
की किताबें पढ़ीं
तो दिमाग थोड़ा
खुला। फिर तो
जैसे कला की
एक नयी दुनिया
मैरे सामने खुलती
चली गयी। यह
अलग बात है
कि उस समय
जो कला संदर्भ
थे वे आज
नहीं हैं।
जे. स्वामीनाथन के
साथ
आप
काफी
समय
तक
रहे।
वह
अनुभव
कैसा
रहा?
मेरे जीवन का
वह स्वर्णिम समय
था क्योंकि उस
समय मैं एकदम
नया था और
कला जगत और
बौद्धिक जगत, पत्रकारिता,
यह सब मेरे
लिए नयी चीजें
थीं। मैं "पैट्रियॉट'
में रेखांकन करता
था और स्वामीनाथनजी
उसके संपादक थे।
मेरा काम मुश्किल
से एक-आध
घंटे का था
परंतु चीजों को
जानने की रुचि
के कारण मैं
दस-बारह घंटे
तक दफ्तर में
ही रहता था।
दुनिया भर की
खबरें वहां आती
थीं जो मेरे
लिए एक नया
अनुभव था। एक
अखबार में नौकरी
करते हुए जो
बौद्धिक विकास होता है,
उसके अलावा भी
मुझे वहां बहुत
कुछ सीखने को
मिला। स्वामीनाथनजी के
कई मित्र वहां
आते थे, उनसे
और पत्रकारों से
संवाद का मुझे
बड़ा लाभ हुआ।
वहां लखनऊ के
एक कवि प्रेमस्वरूप
शर्मा भी आते
थे, न्याज हैदर
अली आते थे।
अन्य लोग भी
आते थे। उनके
बीच विभिन्न मुद्दों
पर बहस होती
थी जो उस
समय तो पूरी
तरह समझ में
नही आती थी
परंतु उनका प्रभाव
आज तक मुझ पर
है।
कहा जाता है
कि कि आपकी कला
पर,
विशेषरूप
से
कंपोजिशन
पर
स्वामीनाथनजी
का
प्रभाव
है।
क्या
आप
भी
ऐसा
महसूस
करते
हैं?
ऐसा नहीं है।
दरअसल स्वामीनाथनजी ने
ज्यॉमेट्रिक फार्म का इस्तेमाल
किया जबकि मैंने मूलत: आकृतिमूलक
काम किये हैं।
स्वामीनाथनजी का सबसे
अधिक जोर स्पेस
डिविजन पर था
जबकि मेरा रुझान
कल्पना की तरफ है,
दिमागी उड़ान पर
है, स्वप्न में
है। इस तरह
मैं खुद पर
उनका वैसा प्रभाव
नहीं मानता जैसा
लोग कहते हैं।
हां, यह जरूर
है कि सभी कलाएं
एक बिंदू पर
आकर मिलती हैं। सभी
कलाकारों के काम
में कुछ समानता
आप तलाश सकते
हैं।
आपकी कला में
जो
कल्पनाएं
हैं,
उनका
यथार्थ
से
कोई
रिश्ता
है
या
वे
केवल
अवचेतन
की
उत्पत्ति
हैं?
इसका बहुत गहरा
रिश्ता मेरे अपने
जीवन के यथार्थ
से है। मैं
जिस परिवार से
हूं वह एक
अच्छा खाता-पीता
परिवार था जिसमें
किसी चीज का
अभाव नहीं था।
हमारे घर में
दो गायें थीं,
बकरियां थीं। एक खाते-पीते हिंदुस्तानी
परिवार की तरह
सुबह हम ठंडाई
और शाम को
छुआरे का दूध
पीते थे। फिर
पता नहीं अचानक
कैसे क्या हुआ,
एक रहस्य की
तरह सब कुछ
समाप्त होता चला
गया। उसके बाद
जीवन में जिन
अभावों को मुझे
झेलना पड़ा, उनसे
लड़ने में मुझे
मेरी कल्पनाशीलता ने
काफी मदद की।
जो चीज हम
वास्तविक जीवन में
नहीं पा सकते
थे, उसे कल्पना
में पाकर खुश
होते रहते थे।
इस तरह मैं
अपनी ही कल्पनाओं
में डूबता चला
गया। इसपर मैंने
एक कविता भी
लिखी थी जो
अब याद तो
नहीं परंतु उसका
भाव आज भी
मेरे मन में
है। उसमें मैंने
लिखा था कि
जो व्यक्ति कर्ज
लेता है, वह
आम आदमी की
तरह नहीं जी
पाता कि आज
का दिन खत्म
हुआ, कल की
कल सोचेंगे। जिसने
कर्ज लिया होता
है उसके लिए
हर बीतने वाला
दिन यह अहसास
देकर जाता है
कि ब्याज और
चढ़ गया। उसका
सारा ध्यान इस
बात में रहता
है कि उसने
कर्ज लिया हुआ
है और उसका
जीवन किसी के
बहिखाते में कैद
है। इस तरह
मैंने सारी कविता
लिखी थी जिसके
अंत में लिखा
था कि क्या मेरे
लिए भी कभी
चांद निकलेगा या
मेरे पांव मेरा
बोझ उठा पाएंगे।
कुछ इसी तरह
का लिखा था।
तो इस तरह
धीरे-धीरे मेरा
रुझान छवियां बनाने
की तरफ चला
गया। उसी कविता
में मैंने यह
भी दर्शाया था
कि यथार्थ मेरे
लिए बिल्कुल बेकार
हो गया है
और जो कल्पनाएं
हैं वही मेरा
यथार्थ हो गयी
हैं।
आप एक तरह
का
मानसिक
भूदृश्य
रचते
हैं
परंतु
उनमें
बहुत
कम
चीजें
होती
हैं,
कभी
एक
पेड़,
पक्षी
और
एक
मानवाकृति।
दूसरी
तरफ
आपके
यहां
मानवाकृतियां
कई
बार
पड़ों
में
या
पशु-पक्षियों
में
परिवर्तित
होती
नजर
आती
हैं।
इसके
पीछे
आपकी
क्या
दृष्टि
रही
है?
मेरी कला में
जो संसार है,
वह मेरे बचपन
का संसार है।
पशु-पक्षियों के
प्रति जो मेरा
प्रेम है, वह
मानसिक है। वास्तविक
जीवन में मैंने
कभी कोई पशु
या पक्षी नहीं
पाला। हां, हमारे
परिवार के पास
जब सब कुछ
था, उस समय
गायें, बकरियां और मुर्गे
भी थे। पहले
उनका मेरे बचपन
में होना और
फिर गायब हो
जाना, इसके चलते
ही वे मेरे
कल्पनालोक का हिस्सा
बन गये और
मेरी कला में
उतरते चले गये।
बाद में पशु-पक्षिया और पेड़
आदि के प्रति
मेरा प्रेम एक
अलग धरातल पर
विकसित हुआ। मुझे
लगता है कि
पशु-पक्षी क्या
बोलते हैं, यह
हमारी समझ में
नहीं आता, काश
हम उनकी भाषा
समझ सकते तो
उनकी इच्छाएं पूरी
कर पाते। आज
मानव समाज में
आदमी को आदमी
से मुश्किलें हैं,
वे एक-दूसरे
को धोखा दे
रहे हैं। आदमी-आदमी में
संवाद नहीं रह
गया है। कोई
एक-दूसरे की
बात नहीं सुन
रहा। इससे मेरे
मन में पशु-पक्षियों से, पेड़
आदि से संवाद
कायम करने की
इच्छा जागृत हुई।
बचपन में मैं
बहुत बार पेड़
पर चढ़कर बैठ
जाता जाता था।
यह सारे बिंब
और इच्छाएं मेरी
कला में उतर
आयीं और मैं
इन्हीं के माध्यम
से अपनी बात
कहने लगा। जहां
तक पेड़ और
पशु-पक्षियों के
साथ मानवाकृतियों को
मिलाने की बात
है तो जब
मैंने विभिन्न दर्शनों
की किताबों को
पढ़ा तो इस
निष्कर्ष पर पहुंचा
कि हर दुनिया
में जो कुछ
है, सब भगवान
का बनाया हुआ
है। इसीलिए उनमें
कुछ न कुछ
समानता भी है।
समस्त प्राणी जगत
पांच तत्वों से
बना है। रूप
में भले ही
हम अलग-अलग
हों परंतु मूलतत्व
एक ही है।
इसी दृष्टि से
मैंने अपनी कृतियों
में मानवाकृतियों को
पेड़, पशु-पक्षियों
से मिला दिया।
आदमी का चेहरा
किसी चिड़िया पर
लगा दिया जाए
या चिड़िया का
चेहरा आदमी के
शरीर पर, मानवाकृति
को पेड़ में
बदल दिया जाए
या पेड़ को
मानवीय चेहरा दे दिया
जाए, उससे कोई
अंतर नहीं पड़ता।
अंदर से सब
एक हैं, यह
मेरी एक भावना
रही है। दूसरी
बात है कि
चिड़िया पर मानवीय
चेहरा लगा देने
से उसके साथ
संवाद करने में
आसानी रहती है
क्योंकि हम मानवीय
भाषाएं तो समझते
हैं परंतु पशु-पक्षियों की भाषा
समझ नहीं पाते।
तो किसी पशु-पक्षी से संवाद
करना हो तो
मुझे उसके शरीर
पर मानव का
चेहरा लगाना सही
लगा।
आपका काम समय-समय
पर
बदलता
रहा
है,
माध्यम
और
शैली
दोनों
स्तर
पर।
आपने
कई
बार
खुद
को
तोड़ा-बदला
है।
इसका
क्या
कारण
रहा
है?
शुरू में जब
मैं कला के
क्षेत्र में आया
तो यह समझता
था कि किसी भी
चीज को देखकर
बना देना ही
कला है। मतलब
कि कुछ बनाया
है तो कला
है। बाद में
महसूस हुआ कि केवल
रूप में कला
नहीं है इसलिए
कुछ भी बना
देना भर कला
नहीं है। कला
है भाव में,
उसकी अभिव्यक्ति में।
इसलिए मुझे लगा
कि अपने
काम में बदलाव
करना, उसमें विरूपण
लाना, उसे तोड़ना
बहुत जरूरी है।
जैसे हम खुद
भी कभी-कभी
महसूस करते हैं
कि जब खुद
को असहज महसूस
करते हैं तो
आपके अंदर एक
अजीब तरह की
संवेदना पैदा होती
है जिससे आप
अंदर ही अंदर
डिफार्म होते हैं।
इस डिफार्मेशन के
दौरान आप अपने
शरीर को तोड़ते-मरोड़ते हैं, दुख
में सिकुड़ते हैं,
खुशी में फैलते
हैं, यह सब
हमारी भावनाओं को
व्यक्त करता है।
इसी तरह कला
में भी होता
है, उसमें भी
परिवर्तन होते हैं।
इसके साथ ही
बौद्धिक विकास के साथ
अब लगने लगा
है कि हर
चीज, चाहे कोई
धब्बा हो, सड़क
पर पड़ा या
उड़ता हुआ कागज
हो, ऐसा महसूस
होने लगा कि वह
कुछ बोल रहा
है जिसे मैं
महसूस कर रहा
हूं। जो चीज
प्राणवान है और
जो प्राणवान नहीं
है, एक सतह
पर आप दोनों
से संवाद कर
सकते हैं। इसी
भावना और संवेदना
के कारण मैं
अपने काम में
कभी विषय के
स्तर पर तो
कभी शैली या
तकनीक के स्तर
पर तो कभी
माध्यम के स्तर
पर परिवर्तन करता
रहा हूं पर
मेरी मूल संवेदना
हमेशा एक ही
रही है।
चित्रकला के रूप
में
आपके
पास
अभिव्यक्ति
का
एक
माध्यम
होने
के
बावजूद
कविता
के
रूप
में
दूसरे
माध्यम
की
जरूरत
आपने
क्यों
महसूस
की?
वैसे तो मैंने
कभी सोचा नहीं
कि कविता लिखूं।
मेरी जितनी कविताएं
हैं वे तकरीबन
सभी स्केचबुक में लिखी
गयी हैं। शुरू
में मेरी इच्छा
थी कि स्वतंत्र
कलाकार के रूप
में काम करूंगा
परंतु ऐसा संभव
नहीं हो पाया।
स्वतंत्र कलाकार के रूप
में कभी तो
काम मिल जाता
था और कभी-कभी कई
दिनों तक खाली
बैठना पड़ता था।
इसलिए मुझे नौकरी
करनी पड़ी। नौकरी
करते हुए कलाकर्म
के लिए पर्याप्त
समय नहीं मिल
पाता था। एक
दिन मेरे मन
में यह विचार
आया कि हम
सोचते तो कलाकार
बनने के बारे
में हैं परंतु
काम कुछ और
करते हैं। स्वामी
विवेकानंद ने अपनी
शिक्षाओं में एक
जगह कहा है
कि जितने भी
महापुरुष हुए हैं
उन्होंने जीवन में
बहुत सारा काम
किया है। वे
लोग इतना सारा
काम कैसे कर
लेते थे? इसका
राज यह था
कि वे सुबह
उठते ही अपना
काम शुरू कर
देते थे और
कभी पीछे मुड़कर
नहीं देखते थे।
सोते-जागते, हर
स्थिति में वे
काम करते रहते
थे। इसी से
प्रेरणा लेकर मैंने
सुबह की चाय
के साथ ही
काम करना शुरू
किया। मैं सुबह-सुबह स्केचबुक
लेकर बैठ जाता
और रेखांकन करने
लगता। इससे दिनभर
मेरे दिमाग में
वे रेखांकन सक्रिय
रहते। मैं हर
दिन पांच-दस
रेखांकन करता हूं।
इससे एक तरह
की दिमागी तारतम्यता
बनी रहती है।
यह मेरे लिए
संतोष की बात
थी कि अपनी
नौकरी का काम
भी कर रहा
हूं और मानसिक
स्तर पर कलाकर्म
में भी लगा
हुआ हूं। उस
समय कई बार
स्केच करते समय
ही एक चित्र
की तरह कविता
मेरे सामने आ
जाती थी जिसे
मैं तत्काल स्केचबुक
में नोट कर
लिया करता था
या कभी अलग
कागज पर उतार
लेता था। उस
समय मैंने अपनी
कविताओं पर अधिक
गंभीरता से विचार
नहीं किया। एक
बार ऑल इंडिया
फाइन आर्ट एंड
क्राफ्ट सोसायटी (आईफैक्स) की
गैलरी में कविता
लिखने वाले चित्रकारों
का काव्यपाठ रखा
गया। उसमें स्वामीनाथनजी
भी मौजूद थे।
वहां मैंने जब
पहली बार अपनी
कुछ कविताएं पढ़ीं
तो लोगों ने
उन्हें काफी पसंद
किया। उसके बाद
मैंने अपनी सारी
कविताओं को तलाश
किया जिनमें से
कई विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपीं
भी। इस तरह
कविता के साथ
मेरा जुड़ाव रहा।
अभी भी यही
होता है कि
मैं लिखने की
इच्छा से कभी
कविता नहीं लिखता।
वह कलाकर्म के
दौरान अनायास मेरे
सामने आती जाती
हैं और उन्हें
मैं कागज पर
उतार लेता हूं।
कविता और चित्रकला
दोनों
ही
छवियों
के
संसार
हैं।
दोनों
माध्यमों
में
किस
प्रकार
का
संबंध
और
अंतर
आप
पाते
हैं?
दोनों माध्यम अलग-अलग
हैं परंतु उनमें
एक चीज समान
है, संवेदना का
तत्व। एक बार
"शिल्पीचक्र' में एक कार्यक्रम
हुआ था जिसमें
हिंदी कवि सौमित्र
मोहन का काव्यपाठ
रखा गया था।
वहां उन्होंने अपनी
कविता लुकमान का
पाठ किया था।
जब वे कविता
सुना रहे थे
तब मुझे लगा
कि वे मेरी
ही बात कह
रहे हैं। तब
मैंने लुकमान कविता पर एक
पूरी श्रृंखला बनायी
थी। वह सफल
रही या नहीं,
कहना मुश्किल है।
मुख्य बात है
कि चाहे
वह चित्रकला हो
या कविता, उसमें
संवेदना का तत्व
समान होता है।
इस संवेदना को,
विचार को और
सोच को चाहे
एक कवि शब्दों
में ढाले या
एक चित्रकार कागज
या कैनवस पर,
उसमें बहुत फर्क
नहीं आता। इसीलिए
मैं कविता और
चित्रकला की छवियों
में बहुत अंतर
महसूस नहीं करता।
अंतर केवल माध्यम
का है।
सौमित्र मोहन की
कविता
पर
काम
करने
के
बाद
क्या
किसी
अन्य
कवि
की
रचनाओं
पर
काम
करने
की
इच्छा
नहीं
हुई?
बाद में मैंने
"मेघदूत' पढ़ा तो
लगा कि इसपर
काम किया जा
सकता है परंतु
मेरी सोच सौमित्र
मोहन से अधिक
मेल खाती है
इसलिए मैंने सोचा
कि मौका मिला
तो उनकी कविताओं
पर फिर से
चित्र बनाऊंगा। करीब
दस साल पहले
अब्राहिम अल्काजी ने एक
ऐसा ही प्रस्ताव
मेरे सामने रखा
था। उन्होंने चाहा
कि मैं कविताओं
पर चित्र बनाऊं।
मैंने उनसे कहा
कि मैं सौमित्र
मोहन की किताब
पर काम करना
चाहता हूं। तब
उन्होंने कहा कि
वे मेरी कविताओं
पर बनायी चित्रकृतियों
को अंतरराष्ट्रीय स्तर
पर पहुंचाना चाहते
हैं जो सौमित्र
मोहन की कविताओं
पर काम करने
से संभव नहीं
होगा क्योंकि वे
हिंदी में लिखते
हैं और विदेशों
में लोग हिंदी
नहीं समझते। उन्होंने
कहा कि यदि
उनका अंग्रेजी में
अनुवाद हो तो
काम किया जा
सकता है। तब
से आज तक
सौमित्र मोहन की
कविताओं का अंग्रेजी
अनुवाद का काम
पूरा नहीं हो
पाया है। कई
बार मन में
आता है कि सौमित्र
मोहन की कविताओं
पर काम संभव
नहीं हो पा
रहा है तो
किसी अन्य कवि
की रचनाओं पर
काम किया जाए,
परंतु अभी तक
कर नहीं पाया
हूं।
क्या कभी अपनी
कविताओं
पर
चित्र
बनाने
की
या
अपने
चित्रों
पर
कविता
लिखने
की
इच्छा
नहीं
हुई?
मेरी कविताओं की जो
आत्मा है, या
जो केंद्रीय विषय
है, वह तो
वही है जो
मेरी चित्रकृतियों में
है। मैंने पेंटिंग
के अलावा शिल्प
भी बनाये हैं,
परंतु उनमें भी
वही बात है
जो मेरे चित्रों
में है या
कविताओं में हैं।
लोग भी यही
बात कहते हैं।
कला के क्षेत्र
में
आज
बाजार
एक
महत्त्वपूर्ण
पक्ष
है।
बाजार
आज
कलाकारा
को
अपने
इशारों
पर
चलने
के
लिए
मजबूर
करने
की
स्थिति
में
आ
गया
है।
इसे
आप
किस
दृष्टि
से
देखते
हैं?
एक बात तो
साफ है कि
बाजार के चलते
कला का विकास
हुआ है। किसी
भी चीज का
बाजार बनता है
तो उसकी कीमत
बढ़ती है और
उसे उतनी ही
अच्छी तरह से
घरों में या
म्यूजियम में रखा
जाता है। इससे
कलाकारों को भी
लाभ होता है।
लेकिन बाजार के
कारण अच्छी कला
पैदा होगी यह
कहना मुश्किल है।
कला के बाजार
में कलाकार के
हाथ बहुत अधिक
नहीं पैसा नहीं
लगता। सबसे अधिक
फायदा उसे होता
है जो कलाकार
से कम दाम
पर काम खरीदकर
अधिक दाम में
बेचता है। एक
तरह की बिचौलिया
संस्कृति है जिसे
फायदा होता है।
इसमें गैलरी संचालकों
से लेकर कला
में निवेश करने
वाले तक सभी
शामिल हैं। कलाकार
की समस्या यह
भी होती है
कि उसके पास
अपने काम को
संभालकर रखने के
लिए पर्याप्त जगह
नहीं होती। इसलिए
कलाकार सोचता है कि
भले ही कम
कीमत मिल रही
है पर उसके
काम को खरीदने
वाला संभालकर तो
रखेगा। इसके साथ
ही एक बात
यह भी है
कि कोई कलाकार
यदि केवल बाजार
के कारण अधिक
काम करे, या
इसलिए अधिक पेंटिंग
बनाये क्योंकि उसका काम
तेजी से बिकता
है तो इससे
कला का बहुत
भला नहीं होने
वाला। कला का
विकास एक लंबी
प्रक्रिया के तहत
होता है। हर
क्षेत्र में यह
बात लागू होती
है। आप चाहें
कि एक
दिन में पेड़
को बड़ा कर
दें या एक
दिन में दस
पेड़ खड़े कर
दें तो ऐसा
नहीं हो सकता।
हर चीज कण-कण करके
बढ़ती है। कला
भी कलाकार के
अंदर इसी तरह
पैदा होती है,
फैलती है। यदि
कला को जल्दबाजी
में बढ़ाने-फैलाने
की कोशिश की
जाएगी तो वह
फट जाएगी, नष्ट
हो जाएगी।
बाजार से जुड़ी
एक
स्थिति
यह
भी
है
कि
आजकल
कला
में
सुंदर
और
सजावटी
दिखने
की
प्रवृत्ति
तेजी
से
बढ़
रही
है
बजाय
इसके
कि
वह
अधिक
कलात्मक
हो
या
जीवन
यथार्थ
को
व्यक्त
करे।
यह बहुत महत्त्वपूर्ण
मुद्दा है। पिछले
कुछ माह से
मैं इस बात
का विश्लेषण कर
रहा हूं कि
भारतीय कला में
जो एक तरह
का सजावटीपन आता
जा रहा है
इसका क्या कारण
है। यदि कोई
कृति ड्राइंगरूम में
लगायी जा सकने
लायक है तो
लोग उसे खरीद
लेते हैं। मुझे
लगता है कि समकालीन
भारतीय कला धीरे-धीरे उस
स्तर तक पहुंच
रही है जहां
वह केवल एक
सुंदर वस्तु बनकर
रह गयी है।
उसमें से विशिष्ट
कलात्मक अभिव्यक्ति गायब होती
जा रही है
जो अब तक
एक कलाकार को
पहचान देती थी,
एक अर्थ देती
थी। एक बार एक औद्योगिक घराने ने मकबूल फिदा हुसेन को एक सौ एक करोड़
रुपये में सौ पेंटिंग बनाने का प्रस्ताव दिया था जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया
था। इस तरह से
कला नहीं हो
सकती। "मोनालीसा' दो रुपये
में बेची गयी
थी या दो
लाख रुपये में,
उससे उसकी कलात्मक
श्रेष्ठता पर कोई
फर्क नहीं पड़ता,
परंतु वह पहले
बनी और उसके
बाद बेची गयी।
म्यूजियम में जब
कोई व्यक्ति किसी
पेंटिंग को देखता
है तो उसकी
कीमत को नहीं,
उसमें कलाकार की
अभिव्यक्ति को देखता
है। बाजार में
किसी कलाकार की
कृतियों की कीमत
उसकी लोकप्रियता को
तो साबित करती
है परंतु श्रेष्ठता
को नहीं। बाजार
के संदर्भ में
यह बात भी
ध्यान देने की है
कि वह
मीडिया पर अधिक
निर्भर है। मीडिया
कुछ ही कलाकारों
के बारे में
लगातार फीचर व
समाचार छापता रहता है
जिसके कारण केवल
उन्हीं का बाजार
बन पाता है।
कलादीर्घाएं भी कुल
मिलाकर 40-50 कलाकारों की कृतियों
को ही प्रदर्शित
करती हैं, खरीदती-बेचती हैं। अधितर
बड़े खरीदार भी
उन्हीं 40-50 कलाकारों के आसपास
घूमते रहते हैं
जिन्हें मीडिया प्रचारित करता
है या गैलरियों
ने आगे बढ़ाया
है। बाजार पर
कब्जा जमाये बैठे
ये कलाकार लगातार
अपने आपको दोहरा
रहे हैं। उनकी
अपनी कला में
तो कोई विकास
नहीं ही हो
पा रहा है,
भारतीय कला को
भी इससे नुकसान
हो रहा है,
उसमें एक तरह
का ठहराव आ
गया है। लोगों
को पता ही
नहीं चलता कि चर्चित
नामों के अलावा
भी कलाकार हैं
जो भारतीय कला
के विकास में
लगे हुए हैं।
इसका एक नतीजा
यह है कि
लोग केवल सजावटी
कला को पसंद
करने लगे हैं।
बाजार भी उसी
को बढ़ावा दे
रहा है। प्रभावपूर्ण
और वास्तविक कला
की जानकारी न
तो बाजार को
है और न
ही लोगों को।
लेकिन इस सजावटी
कला
ने
वास्तविक
कला
का
काफी
नुकसान
भी
तो
किया
है।
ऐसे
में
कलाकार
क्या
करें?
यह सही है
कि सजावटी कला
ने वास्तविक कला
का काफी नुकसान
किया है। जैसे
जवानी में हर
व्यक्ति प्रेम की तरफ
भागता है, उसे
रोकना बहुत मुश्किल
होता है। आप
चाहे उसे लाख
समझायें कि वह
गलत रास्ते पर
जा रहा है,
वह नहीं मानता,
जब तक कि
उसे खुद यह
बात अपने अनुभव
से समझ में
नहीं आती। इसी
तरह जब तक
कलाकारों को इस
बात का अहसास
नहीं होगा कि
वे क्या करना
चाहते थे और
क्या करने लगे
हैं, तब तक
उनमें बदलाव नहीं
आने वाला। वैसे
यह अभी कला
बाजार की जवानी
का दौर है
जिसमें कलाकारों को पैसा
मिल रहा है
तो सब उसके
पीछे भाग रहे
हैं। यह भागमभाग
लंबी नहीं चलेगी।
कलाकार अपने मूल
धर्म की तरफ
जरूर लौटेंगे।
भारतीय कला शिक्षा
आज
भी
अंग्रेजा
द्वारा
लागू
पाठ्यक्रम
पर
आधारित
है।
पिछले
40-50 सालों
में
उसमें
कोई
बड़ा
बदलाव
नहीं
आया
है,
न
विषय
के
स्तर
पर
और
न
ही
तकनीक
के
स्तर
पर।
उसमें
कला
के
नये
रूपों
को
भी
शामिल
नहीं
किया
गया
है।
एक
कला
शिक्षक
के
रूप
में
आप
क्या
महसूस
करते
हैं,
उसमें
बदलाव
होना
चाहिए?
और
किस
तरह
का
बदलाव
होना
चाहिए?
मेरी निजी राय
है कि जो
हमारा कला शिक्षा
का पाठ्यक्रम है
उसमें बदलाव बहुत
जरूरी है। हमारे
यहां जो कला
इतिहास पढ़ाया जा रहा
है वह पश्चिम
का है। उसे
पढ़ाने में कोई
बुराई नहीं है
परंतु मेरा मानना
है कि हमें
अपने अतीत में
जाकर कला संबंधी
जो भारतीय दृष्टि
और शैली रही
है उसे अपनाना
चाहिए। विडंबना यह है
कि हमारे यहां
जो पश्चिमी कला
का, जो पश्चिमी
कला पाठ¬क्रम
का अध्ययन हो
रहा है वह
भी आधा अधूरा
है। यदि वह
भी ठीक से
होता तो कोई
बुराई नहीं थी।
अभी तो हो
यह रहा है
कि हमारे कला
के विद्यार्थी न
तो भारतीय हो
पा रहे हैं
और न ही
पश्चिमी। हम कहीं
के नहीं रहते।
हलांकि मेरी दिली
इच्छा यही है
कि हम अपनी
परंपरा को देखें
और कला संबंधी
भारतीय दृष्टि को ही
कला शिक्षा का
आधार बनायें। पश्चिम
में भी कला
संबंधी जो विकास
हुआ वह तब
हुआ जब उन्होंने
पूर्व को और
उसकी कला को
जाना। पश्चिम वालों
ने पूर्व से
संपर्क में आने
के बाद जाना
कि पूर्व में
जो दोआयामी कला
हो रही है
वही वास्तविक अभिव्यक्ति
है, वही कला
का असली मकसद
है। उन्होंने तो
पूर्व से यानी
हमसे सीखा परंतु
हम अभी तक
अंधेरे में हैं।
कला शिक्षण संस्थानों
में जो शिक्षक
हैं उन्हें अभी
तक यह बात
समझ में नहीं
आयी है, और
जल्दी आने की
संभावना भी नहीं
है। इसके लिए
समय चाहिए। किसी
भी चीज को
समझने के लिए
कई बार पूरी
जिंदगी कम पड़
जाती है। यहां
तक कि जो
पश्चिम की आधुनिकता
है उसे भी
हमारे देश में
90 प्रतिशत लोग ठीक
से समझ नहीं
पाये हैं। इसलिए
भी हमारी आधुनिकता
में गड़बड़ियां हैं।
क्या कला शिक्षा
को
नये
कला
संदर्भों,
उसके
नये
रूपों
से
जोड़ने
की
जगह
पुरानी
भारतीय
कला
से
जोड़ना
लाभदायक
होगा?
कला के क्षेत्र
में ऐसे बहुत
से सवाल उठते
हैं कि फलां
काम पश्चिम से
प्रभावित है या
उसकी नकल है,
यह इसलिए कि
हमारी कला में
हम भारतीय उत्स
तलाश नहीं कर
पाते। ऐसा इसलिए
होता है कि
हमारा अपनी कला
परंपरा से, उसके
इतिहास से कोई
जुड़ाव नहीं होता।
यदि किसी को
नटराज की अवधारणा
पर चित्र बनाने
को कहा जाए
तो उसके लिए
बहुत मुश्किल होगा
क्योंकि नटराज की छवि
बहुत ही जटिल
और अद्भुत है।
मुख्य बात यह
है कि किसी
भी विचार को
आकार देने की
क्षमता आपमें कितनी है।
भारतीय कला परंपरा
में इतने सारे
देवी-देवताओं के
चित्र बनाये गये
हैं जो हमारे
जीवन में कभी
मौजूद नहीं रहे। हमने
शक्ति का जो
प्रतीक बनाया उसे आज
के बच्चे सोच
भी नहीं सकते।
हम तो उसे
ठीक से दोहरा
भी नहीं पाते।
यदि हम अपने
आपको उस समय
से और काम
करने की पद्धति
से जोड़ें तो
काफी आगे जा
सकते हैं। इसके
लिए हमें अपनी
कला शिक्षा को
अपनी विरासत से
जोड़ना होगा।