Saturday 17 September 2016

जेराम पटेल की कला : एक हैं जहां रूप-अरूप

एक हैं जहां रूप-अरूप
जेरामम पटेल की कला


 वेदप्रकाश भारद्वाज
जेराम पटेल समकालीन भारतीय कला के एक महत्त्वपूर्ण चितेरे थे। वे अमूर्तन के लिए पहचाने जाते हैं।  "ग्रुप 1890' के वे संस्थापक सदस्य थे जिसमें जे. स्वामीनाथन, ज्योति भट्ट, राघव कनेरिया आदि उनके साथी थे। अमूर्तन की तरफ शुरू से ही उनका झुकाव रहा, पर देखा जाए तो उनकी कला मूर्त-अमूर्त की संधि पर स्थित है। यह सही है कि उनके यहां आकृतिमूलक काम करने वाले कलाकारों की तरह स्पष्ट मानवीय या प्राकृतिक छवियां नहीं हैं, परंतु जो हैं, उनका अपना रूप ऐसा है जो हमें अनेक आकारिक छवियों का आभास कराता रहता है।  वे मनुष्य के बाहरी चित्रात्मक अनुभवों की निÏश्चतता और सुस्पष्टता को चुनौती देते हुए ऐसे रूप रचते रहे जिनमें आकारिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक स्तर पर भी एक तरह की बेचैनी दिखाई देती है। रूप-अरूप जैसे उनके यहां एक हो जाते हैं।

कागज पर वाटरप्रूफ इंक में काम करने वाले जेराम पटेल के लिए माध्यम जैसे कोई बड़ी चीज नहीं रहे, बल्कि अक्सर वे माध्यम को बदल कर खुद को ही फिर से खोजते दिखाई देते थे। एक समय लकड़ी को जलाते हुए किये कामों ने उन्हें प्रतिष्ठित किया पर फिर जैसे अचानक उन्होंने खुद को ही खारिज कर दिया। उन्होंने लकड़ी पर एनेमल पेंट से काम करना शुरू कर दिया और जब उसे भी उनकी पहचान मान लिया गया तो कागज पर स्याही से काम करने लगे जिसने उन्हें एक नई ऊंचाई पर पहुँचा दिया। पर जैसे किसी एक मानक पर खुद को परखा जाना या किसी एक शैली व माध्यम को उनकी पहचान मान लिया जाना उन्हें स्वीकार नहीं था। इसीलिए जब कला प्रेमी और संग्राहक उनके कागज पर स्याही वाले कामों के लिए पागल थे तो उन्होंने उसे छोड़ एकबार फिर लकड़ी को जलाकर व उसके साथ शीशा जोड़कर खुद को नए रूप में खोजा। माध्यम के बड़प्पन के भ्रम को तोड़ते हुए वे कहीं न कहीं जीवन में चीजों की बढ़ती महत्ता और अनिवार्यता को चुनौती देते रहे। माध्यम अंतत: उपभोग सामग्री है और यह कलाकार पर निर्भर करता है कि वह उसका किस तरह, कितना और क्यों उपयोग करता है। इसीलिए यह बात गौर करने वाली है कि उनके प्रत्येक माध्यम के काम में मूल आकार में ऐसी साम्यता देखने को मिलती है जो उनकी पहचान है।


सामग्री की न्यूनता और सृजनता की बहुलता को कायम करता उनका सृजन जो रूप रचता है वह समकालीन मनुष्य के आंतरिक रूप पर अधिक केंद्रित है, उसके बाह्य रूप पर कम। बाह्य रूप तो कैसा भी हो सकता है, सुदर्शन भी और विरूप! भी, असली रूप तो आंतरिक है जिसके सुदर्शन होने से ही मनुष्य और अंतत: समाज सुदर्शन बनता है। कागज पर वाटरप्रूफ इंक से रची गयी उनकी कृतियों में जो आकृतियां उभर कर सामने आती हैं वह कभी मानव और कभी पशु आकृतियां प्रतीत होती हैं। प्रत्येक मनुष्य में थोड़ा पशुत्व होता है और प्रत्येक पशु में थोड़ा मनुष्यत्व। जिन्हें हम मनुष्य मानते हैं और जिनसे हम मानवीय व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं, वह अचानक आदमखोर के रूप में हमारे सामने आते हैं। यह भारतीय समाज का ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य के असली रूप को सामने लाने के समान है।

इस तरह हम जेराम पटेल की रचनाएं हमें कई विमर्शों का अवसर देती हैं। और एक बड़े कलाकार की एक पहचान यह भी होती है कि देखने वाले उसके कई विमर्शों को संभव कर सकें। वह देखने वाले को उसकी मौजूदा स्थिति से भिन्न स्थिति में रूपांतरित कर दे। जेराम पटेल के काम में यह विशेषता है। उनके काम की एक विशेषता रूपों की गतिशीलता है। वे चाहे जिस तरह का रूप रचें, चाहे उसमें देखने वाले को मानवाकृति का आभास हो या पशु-पक्षि की आकृति का, उसमें निर्जीवता नहीं होती, उसमें जीवन और उसकी गतिशीलता का बोध होता है। बहुत से कलाकार जो मूलत: आकृतिमूलक काम करते हैं, और काफी सजीव, फोटोग्राफी की तरह का यथार्थपूर्ण कार्य करते हैं, वह तक अपने काम में जीवन की वह गति नहीं ला पाते जो जेराम पटेल न्यूनतम सामग्री के माध्यम से लाने में सफल रहे।

कागज पर स्याही से रचे अपने काम को वे रेखांकन कहते थे, हालांकि उन्हें मात्र रेखांकन कहना उचित नहीं लगता क्योंकि वे मुकम्मल पेंटिंग हैं। बहरहाल, उनके काम में, विशेषरूप से लकड़ी पर एनेमल पेंट वाले काम में, कहीं खिलौना-पहेलियों (पजल्स) की छवियां मिलती हैं तो रेखांकनों में पजल्स के साथ-साथ शरीर के अंगभंग की छवियां भी हैं। उनके काम में बहुत से ऐसे रूपाकार नजर आते हैं जो कभी तो लगता है कि एकदम जाने-पहचाने हैं और कभी लगता है कि वे किसी अनजानी दुनिया के हैं। परिचय-अपरिचय की उनकी दुनिया में कल्पना भी है और यथार्थ भी। यथार्थ सिर्फ वही नहीं होता जो दिखाई देता है, जो दिखाई नहीं देता, कई बार वह अधिक बड़ा और वास्तविक यथार्थ होता है। जो नजरों को दिखाई देता है वह यथार्थ की जगह कई बार उसका भ्रम भी होता है। जेराम पटेल की कला इस दिखाई देने वाले और दिखाई न देने वाले यथार्थ और उसके भ्रम के द्वंद्व को सामने लाती है। कला में माध्यम और किसी तरह के सरलीकरण या शैली के बंधन को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। स्वतंत्र रहने की यह आकांक्षा उनके काम में उभरने वाली आकृतियों को भी स्वतंत्र करती है। अक्सर हवा में उड़ती या तैरती सी लगने वाली आकृतियां आपस में संबंधित होकर भी स्वतंत्र रहती हैं। उनकी आकृतियों में लोककला के भी अनेक मोटिफ मिलते हैं परंतु वह अपने मूलरूप में नहीं हैं। उन्हें जेराम पटेल ने अपनी तरह से बरतते हुए नया रूप दिया है जो समकालीन संदर्भों के अधिक निकट पहुंचते हैं। रूप-अरूप को एक करती उनकी कृतियां देखने वालों को किसी पूर्व अनुभव या रचित अर्थ के बंधन से भी स्वतंत्र करती हैं। एक तरह से वे दर्शक को चेतन करती हुई नये अनुभवों और अर्थों तक जाने ले जाती हैं।