Thursday 12 November 2015

Friday 9 October 2015

कला और कलाकार: लोक व आदिवासी कला के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न

कला और कलाकार
लोक व आदिवासी कला के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न
वेद प्रकाश भारद्वाज

पिछले दिनों एक मित्र के साथ कला को लेकर चर्चा हो रही थी। उसका एक प्रश्न था कि क्या गणेश उत्सव, नवरात्री उत्सव के लिए मूर्तियां बनाने वाले कलाकार नहीं है और दशहरा पर जलाने के लिए जो रावण के पुतले बनाये जाते हैं वो कला नहीं है? इन प्रश्नों के साथ फिर यह प्रश्न भी आता है कि आखिर हम मधुबनी, वरली या मिनिएचर पेंटिंग करने वालों को कलाकार क्यों स्वीकार नहीं करते हैं? यहाँ कलाकार से आशय आधुनिक कला करने वाले कलाकारों से था। इस तरह के प्रश्न अक्सर मेरे सामने आते रहे हैं और हर बार उनका सन्तोषजनक जवाब देना आसान नहीं रहा। दरअसल हम जो खुद को फ़ाईन आर्ट करने वाले कलाकार मानते हैं इस तरह के प्रश्नों से अक्सर दो-चार होते रहते हैं। हम लोक कलाकारों को या मूर्तियां बनाने वालों को अपनी तरह का कलाकार स्वीकार नहीं कर पाते हैं। एक जवाब तो यही होता है कि उनका कलाकर्म एक तरह का उत्पादन होता है जो सीधे सीधे किसी खास उपयोग के लिए बनाया जाता है। दूसरी बात यह सामने आती है कि लोक कला करने वालों के यहाँ एक ही छवि की कई अनुकृतियाँ बनाने का चलन है। इस हिसाब से देखें तो फिर छापा कलाकार भी संदिग्ध ठहरा दिए जाएंगे जबकि उन्हें हम समकालीन या ललित कला में शामिल करते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व की एक बात याद आती है। मैं पॉटरी कलाकार देवी प्रसाद का साक्षात्कार ले रहा था। पॉटरी को लेकर उन्होंने कई प्रयोग किये थे। उन्होंने इस बात पर बाल दिया था कि पॉटरी के साथ उपयोगिता वाला तत्व अनिवार्यतः जुड़ा होना चाहिए। इधर जब कई कलाकार मित्र पेंटिंग ना बिकने का दुःख प्रकट करते हैं तब मेरा कहना होता है कि हम जो कला कर रहे हैं, चाहे वो पेंटिंग हो या शिल्प, वह दैनिक जीवन की उपयोगी वस्तुओं में नहीं आते और इसीलिये सभी लोग उसे खरीदते नहीं हैं। पर मुझे खुद अपनी बात कई बार अर्थहीन लगती है जब मैं पाता हूँ कि लोक कलाकारों या आदिवासी कलाकारों की रचनाएँ लोग अधिक खरीदते हैं। इसके पीछे एक बात उसका मूल्य कम होना तो है ही साथ ही यह भी कि लोक कलाकारों कि रचनाओं से लोग खुद को सहज ही जोड़ लेते हैं।

यहाँ एक नया प्रश्न सामने आता है कि क्या कारण है कि लोक कलाकारों व आदिवासी कलाकारों को ललित कलाकरों या कहें कि समकालीन कलाकारों में शामिल नहीं नहीं किया जाता। इसका एक कारण जो मुझे समझ में आता है वो यह कि हम समकालीन कलाकार ही उन्हें अपनी जमात में शामिल नहीं करना चाहते क्योंकि हम मान कर चलते हैं कि वे हमसे कमतर हैं। दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि जिस तरह से आधुनिक कला का विकास हुआ उस तरह का विकास लोक व आदिवासी कलाओं में देखने को नहीं मिलता। आज भले ही कुछ आदिवासी व लोक कलाकार एक्रेलिक व ऑयल रंगों से कैनवास पर चित्र बनाने लगे हैं परन्तु उनके विषय वही पुराने होते हैं, उनमें समकालीन समय का चित्रण नहीं मिलता, साथ ही उनमें नए प्रयोगों का भी अभाव है।

ऐसा नहीं है कि लोक व आदिवासी कलाकार आधुनिक समय और उसमें हो रहे परिवर्तनों से एकदम अनजान हैं। उनमें शिक्षा का प्रसार भी हुआ है और वे आधुनिक तकनीक के उपभोक्ता भी हैं फिर भी वे समकालीन जीवन का चित्रण नहीं करते हैं तो इसका कारण कहीं न कहीं उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा का अभाव है। हमारी कला शिक्षा में उनके लिए कोई जगह नहीं है। एक बात यह भी है कि लोक व आदिवासी कलाकारों पर इस बात का दबाव बनाया जाता है कि वे अपनी पहचान बनाये रखने के लिए जैसे हैं वैसे ही रहें और अपनी कला को भी वैसा ही रखें। यह एक ऐसा छल है जो उनके साथ जीवन के हर पक्ष में किया जाता रहा है जो उन्हें आधुनिक समाज ??और कला से दूर रखता है। केंद्र व राज्य सरकारों ने लोक व आदिवासी कलाकारों के लिए संस्थाएं तो बनायीं व उनके लिए धन भी प्रदान किया पर उन संस्थानों की कमान ऐसे हाथों में रहती है जिनका हित उनकी कला को जस का तस रखने में होता है।

Tuesday 29 September 2015

सृजन के सरोकार: अमित कल्ला

सृजन के सरोकार
युवा चित्रकार अमित कल्ला की डायरी से  

एक कवि और चित्रकार होने के नाते अपने काम में निरंतर लगे रहना बेहद सुखदायी होता हैए कागज़ पर लिखी गयी नयी कविता और कैनवास पर रंगसाज़ी दोनों ही मेरे लिए ऐसे अतीन्द्रियदर्शी सुकोमल अनुभव हैं जो यकीनन शब्दातीत हैं । अक्सर जब अपने अन्य साथी कलाकारों से इस मसौदे पर बात होती है तो पता चलता है कि  हम सभी कलाकारों की वैविध्यता भरी कला भाषा का व्याकरण एक ही है । सबकी अपनी . अपनी प्रार्थनाएं होने के बावज़ूद अनुभव के स्तरों पर भी अमूमन गहरी समानता हैए मसलन अनुभूति के आधारों पर कलाओं की इन विभिन्न धाराओं के बीच अभिन्न तालमेल और अन्तर्सम्बन्ध हैं चाहे वह दृश्य कलाओं की बात हो अथवा प्रदर्शनकारी यानि परफॉर्मिंग आर्ट कीए जहाँ कला और कलाकार के बीच होने वाला वह संवाद सबसे महत्वपूर्ण है और आखिर में उसका यथासंभव बचे रहने में उसकी सबसे बड़ी सार्थकता हैए लिहाज़ा जिसके भीतर सच और सहजता का अनुपम वास हैए जो सबके अपने . अपने व्यक्तिगत स्वभावानुसार भी है।

हमारे समाज में कला और शिल्प इन दोनों ही विषयों के बीच प्रमाणिकताए प्रासंगिकता और रचनात्मकता के स्फुरणों को लेकर भारी मतभेद हैं परस्पर दोनों के धरती और आकाश एक ही हैं किन्तु विकास की वैचारिकी में बहुत अंतर दिखाई पड़ते हैं कमोवेश मोटे तौर पर दोनों ही कला के अनन्य रूपक हैं जहाँ सतत अपने काम में लगे रहने की ज़रूरत होती है जिसके दौरान कभी कभी कुछ सवाल भी खड़े होते हैं इन सबके बीच मन अपने होने के मायने खोजने लगता हैए जिसका तात्पर्य आत्ममुग्धता से कदापि नहीं है अपितु यहाँ एक ऐसा परिशुद्ध विचार है जो अव्यैक्तिकता के सोपानों को छूना चाहता है जिसकी मंशा अपने भीतर के दायरों को खोलने की है । जिसकी गति उर्ध्व और अधो दोनों ही हैए जो एक दूसरे के सवालों से सवाल बनाते दीखते हैं ऐसे में एक सवाल बार बार सामने आकर खड़ा होता है . वह यह कि कलाकार होने के असल मायने क्या हैं।  बुनियादी तौर पर दुनिया में उसका होना क्या और क्यों हैं । उदाहरण के लिए चित्रकला के सन्दर्भ में अगर हम बात करें तो किसी स्तर पर कोई भी कह सकता है की वह चित्रकार है और पेंटिंग करना उसका काम है उसके द्वारा बनाये गए चित्र के द्वारा बड़ी आसानी से उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया जा सकता हैए क्या इन्ही तमाम बातों में एक कलाकार का होना छिपा है या फिर कुछ अन्य सतहें भी है जिन्हें जाँचना परखना बेहद आवश्यक है ।

मुझे लगता है कि कलाकार होना अपने आपमें बड़ी जिम्मेदारी भरा सबब है स्वयं एक कलाकार के लिए भी जिसे अपने होने को आधा . अधूरा जानना एक ग़फ़लत हैए इस क्रम में प्रसिद्ध जर्मन मनोविज्ञानी गेस्टॉल्ट और उनके बताये प्रत्यक्षीकरण का सूत्र याद आता हैं जहाँ वे "form अथवा personality as whole" का ब्यौरा देते हैं। सही अर्थों में एक सच्चे कलाकार का समूचा जीवन ही कलामय होता है जहाँ कला में जीवन या फिर जीवन में कला इस जुमले में फर्क कर पाना बहुत मुश्किलों भरा सबब है । निश्चित तौर पर किसी भी साधारण इंसान का कला को चुनना ही अपने आप में असाधारण . सा कृत्य है चाहे उसका ताल्लुख किसी भी विधा अथवा फॉर्म से हो ।  यह चुनाव ही दर . असल अपने आपमें बड़ी चुनौती हैए एक देखी अनदेखी तीखी तड़प को अपने साथ सींचती हुयी चुनौती जहाँ प्रतिपल कुछ नया सृजन करने की आकांशा हैए स्थापित लकीरों को मिटाने की चाहत के साथ अंतर्मन की उथलपुथल जिसकी समाज में स्थापित मूल्यों से टकराहट है । निरंतर कुछ नया रचने की उत्साह भरी जुम्बिशए जिसमे रचना प्रक्रिया के माध्यम से देश और काल सरीखे पैमानों के पार जाने की ताकत है।

कला कभी भी एकांतिक नहीं हो सकती चाहे वह किसी भी स्वरूप में क्यों न होए उसकी अपनी सामाजिकी जरूर होती हैए अपने परिवेश से जुड़ते संस्कार और सरोकार अवश्य होते हैं जो कि कलाकार के माध्यम से अनेक रूपाकारों में अभिव्यक्त होते हैंए रचना की प्रायोगिक भिन्नताए व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का उसका एक दूसरे से अलग होना इस पूरे क्रम में सौंदर्य का पर्याय है जिसके मर्म की संवेदनशीलता को जल्द से जल्द समझ जाना और उस भिन्नता का सम्मान करना एक संवेदनशील समाज के लिए भी बेहद जरुरी है। कलाकार का अंतःकरण  सदैव आंदोलित रहता है चेतन.अचेतन रूप से जिसकी सुनिश्चित अभिव्यक्ति उसके काम में साफ़ नज़र आती है जिसका आधार जीवन ही हैए ये बेशकीमती जिन्दगी और उससे जुड़े फ़लसफ़े, बेशक उसके उपान्तरण में सृजनकर्ता का अपना अपना तरीका हो जिसका सरोकार कलाकार की अपनी निजता और स्वतंत्रता से हो।

कहते हैं जो सहता है वही रहता हैए कलाकार के  जीवन में इस सहने के कई अर्थ होते हैंए जिससे गुज़र कर उसके विचार और उसकी कृति असल पकाव को पाते हैं ये सहने का दौर अनंत तकलीफों के साथ.साथ बड़ा रोचक भी होता है बारम्बार जहाँ खुद को गढ़ना और बिखेरना एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा हो जाता है और क्रमशः उसकी जिन्दगी का भी अंतरंग हिस्सा । आज पूरी दुनिया को यह दिखने लगा है कि विज्ञानं अपने अंतिम पड़ावों पर है और मानवीय सभ्यता उसकी संगति की सीमाओं को छू कर अपने मूल नैसर्गिक स्वरूप में लौटना चाहती हैए जिसे अपने दामन में ठहराव लिए कलाओं के सहारे की ज़रूरत है, सच्चे  लेखकए कविए कलाकारों की ज़रूरत है जो जीवन में फैले बेरुख़ी के बारूद को बे.असर करके कल्पना और यथार्थ के बीच साँस लेने की गुंजाईश पैदा करे उन अंतरालों को गढ़े जहाँ इस दौड़ती भागती दुनिया में कोई भी कुछ देर ठहर सके अपने भीतर उठते उन स्वरों को सुन सके अपने मन की कह सके जहाँ अधूरे में चाह हो पूरा होने की ताउम्र भटकता रहे वह रंगत पाने को बिन जाने ही उस पूरे पर मुक़र्रर अधूरे को ।

एक लम्बे समय के बीत जाने के बावजूद दुर्भाग्य से हमारा समकालीन कला परिदृश्य अपनी भाषा में यथोचित शब्दकोष और विषय संबंधी सही . सही  परिभाषाओं से कोसों दूर हैए जबकि प्रायोगिक स्तर पर किया जा रहा कलाकर्म काफी आगे है जिसमें फोटोग्राफीए सिनेमा से लेकर ग्राफ़िकए पेंटिंगए स्कल्पचर इत्यादि सम्मिलित हैं। तमाम तर्कों के बावज़ूद यहाँ कलाकार और कलमकार के बीच एक बड़ा फासला है कला भाषा के व्याकरणों को जोड़कर उन्हें निरूपित करने वाले हिंदी भाषी कम ही लोग हैंए काफी हद तक सिनेमा और संगीत ने तो अपने जादू को बरकरार रखा है जहाँ समय.समय पर बहुत कुछ अच्छा लिखा जा रहा है इन कलाओं की कैफियत ने बहुत से उम्दा आलोचक पैदा किये हैं जिनकी बदौलत लहर. दर.लहर बहुत कुछ किनारे आकर ठहरा भी है जिसकी अनुगूँज समाज में साफ़ सुनाई पड़ती हैए लेकिन ललित कलाओं के संदर्भ में तो हमारे हाल.बे.हाल हैं इक्के दुक्कों को छोड़कर यहाँ पूरा का पूरा सूपड़ा साफ़ हैए हालाँकि बड़ी भारी संख्या में देश भर के विश्वविद्यालयों में ललित कला विषय के अंतर्गत कला इतिहास में शोध करवाये जाते रहें हैंए ये शोधार्थी जो महज़ गुदड़ी के लाल साबित हो रहे हैं जिसके लिए पूरी की पूरी विवस्था जिम्मेदार है। आज जरुरत है कला के विभिन्न पक्षों को एक खास तबके से बाहर निकाल कर आम लोगों तक पहुँचाने की रचनाशीलता के प्रति जनसरोकार बढ़ाने कीए विचारशीलता के स्तर एक समूचा कला आंदोलन खड़ा करने कीए जिसके लिये हर एक विधा के कलाकारको भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। संवाद के नए सहज अर्थ रचने होंगे अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति को ओर ज्यादा संवेदनशील बनाकर नए समय की नयी शब्दावली के ताने बाने बुनने होंगे।

Monday 28 September 2015

आध्यात्म और कला का संगम: सोहन कादरी/ art of sohan kadri

आध्यात्म और कला का संगम
सोहन कादरी की कला पर एक टिप्पणी
वेद प्रकाश भारद्वाज

भूमंडलीकरण के इस दौर में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय कला को व्यापक स्वीकृति मिली है और आज एकदम नये कलाकार भी पश्चिमी कला जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। पर एक समय था जब भारतीय कला को पश्चिम में कोई महत्त्व नहीं दिया जाता था विशेषरूप से गुलामी के समय में। यह स्थिति बदली आजादी के बाद। आजादी के बाद भारतीय कलाकारों ने जब कला के पश्चिमी मुहावरे को जो अंग्रेजों की देन था, छोड़कर भारतीय दृष्टि को कला के केंद्र में लाने का प्रयास किया तो उन्हें स्वाभाविक रूप से अपने अतीत में लौटना पड़ा। अतीत जिसमें ब्रिटिश गुलामी के पहले की कला में दर्शन और अध्यात्म प्रमुख था, वह अमूर्तन की दिशा में आगे बढ़ने वाले कलाकारों को अपनी अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त लगा। यही वजह है कि सैयद हैदर रजा, जीआर संतोष, वीरेन डे और सोहन कादरी जैसे कलाकारों ने अपनी अभिव्यक्ति के केंद्र में भारतीय दर्शन और अध्यात्म को रखा जो उनकी भारतीय पहचान कायम करता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय कलाकार के रूप में पहचान बनाने वाले अन्य कलाकारों, जैसे हुसेन, तैयब मेहता, अकबर पदमसी आदि के काम में भी भारतीयता ही वह गुण है जिसके कारण उन्हें देश से बाहर भी स्वीकार किया गया। इसका एक प्रमाण यह है कि सूजा ने भले ही सबसे पहले पश्चिम में ख्याति प्राप्त की हो परंतु उन्हें पश्चिमी कला जगत में एक गंभीर कलाकार के रूप में बहुत कम स्वीकृति मिल पायी। बहरहाल, अमूर्त चित्रकारों में सोहन कादरी अपने समकालीनों से इस अर्थ में अलग साबित हुए हैं कि एक तो अध्यात्म और दर्शन का उनके निजी जीवन में गहरा प्रभाव रहा क्योंकि उनके गुरु भीकम गिरी एक मंदिर में नर्तक और संगीतज्ञ थे। इसके अलावा सोहन कादरी पर उनके गांव के एक सूफी का भी गहरा प्रभाव पड़ा जिनके प्रभाव से ही उन्होंने बाद में अपने नाम के साथ कादरी शब्द जोड़ा। रजा, संतोष और डे जहां तंत्र और दर्शन के विभिन्न प्रतीकों और चिह्नों को लेकर अभिव्यक्ति के नए आयाम स्थापित करते रहे वहीं सोहन कादरी ने उनके आगे की यात्रा करते हुए अपने चित्रों को अमूर्तन की वह भाषा दी जिसमें भारतीय दर्शन और अध्यात्म की आत्मा के साथ-साथ आधुनिक कला का मुहावरा भी शामिल है। और यहीं आकर सोहन कादरी अध्यात्म और तंत्र को पेंट करने वाले अपने समकालीन महान कलाकारों से अलग और विशिष्ट नजर आते हैं। भारतीय अमूर्त कला के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक सोहन कादरी ने साठ के दशक में अमूर्तन को भारतीय दर्शन और संस्कृति से जोड़ कर जो कला यात्रा शुरू की वह आज उस मुकाम तक पहुंच चुकी है जहां वह अपने समकालीनों से एकदम अलग नजर आते हैं। भारत में तंत्र-पेंटिंग करने वालों में जीआर संतोष और वीरेन डे का नाम प्रमुखता से लिया जाता है परंतु कादरी का काम तंत्र पेंटिंग से आगे जाकर अध्यात्म की ऊंचाई तक पहुँचता है। दिल्ली की कुमार गैलरी में उनकी प्रदर्शनियाँ  देखना हर बार एक नये अनुभव से गुजरने के समान रहा। हेंडमेड पेपर पर एक ही रंग की विभिन्न रंगतों का प्रयोग करते हुए पेपर पर कहीं-कहीं कटिंग के जरिये जो छिद्र और रेखाओं के माध्यम से रूपांकन उन्होंने किये वह उनके काम का अपना अलग अंदाज है। उनका काम हर बार देखने वाले को बाहरी दुनिया के बजाय आंतरिक संसार से जोड़ता है।  सोहन कादरी पर अध्यात्म का गहरा प्रभाव है जो उन्हें बचपन में ही अपने गुरु भीकम गिरी से मिला जो उनके गांव में शिव मंदिर में नर्तक और संगीतज्ञ थे। कला का संस्कार उन्हें सबसे पहले उन्हीं से मिला। उसके साथ ही उनके गांव के एक सूफी संत ने भी उनके बचपन पर गहरा प्रभाव डाला। सूफी जो अपने आपको कादरी नहीं कहते थे, एक आइना अपने हाथ में रखते थे जिसमें वे खुद को बार-बार देखते रहते थे। उन्हीं से सोहन कादरी ने जाना कि आइने में हम जो दिखते हैं दरअसल वैसे होते नहीं हैं। एक तरफ अपने गुरु से मिला संगीत और नृत्य का संस्कार और दूसरी तरफ मजार की शांति, इन दोनों ने सोहन कादरी को इतना प्रभावित किया कि उनके काम में भी आकृतियों का नृत्य और संगीत दिखाई-सुनाई देता है तो रंगों की शांति भी।  सोहन कादरी अपने मानस के मुसाफिर हैं जो टैक्सचर के माध्यम से अमूर्तन का आनंद रचते हैं। समय और व्योम की अनंत संभावनाओं को रचते हुए वह एक रचनात्मक अनुभव को अपने चित्रों में इस तरह सामने लाते हैं कि वह देखने वाले का अनुभव भी बन जाता है। उनकी पेंटिंग में मौजूद आकार उपस्थित होकर भी अनुपस्थित रहते हैं और उसकी जगह उपस्थित रहता है ज्यामितीय आकारों का उच्च और निम्न प्रभाव। नि:संदेह उनका प्रत्येक चित्र अनुभव के विभिन्न स्तरों के संबंध को व्यक्त करता है।  उनके काम को देखकर ऐसा लगता नहीं है कि उन्हें बनाया गया है, बल्कि लगता है जैसे वे किसी ध्यानस्थ योगी की साधना से निकले हैं। अपने हाल ेचित्रों में उन्होंने कागज पर कहीं एक दिशा में छिद्रों के माध्यम से तो कहीं लाइनों के माध्यम से जीवन की भिन्न अवस्थाओं की अभिव्यक्ति की है। इधर के काम में कुछ चित्रों में उन्होंने शिवलिंग को और अधिक अमूर्त तरीके से पेंट किया है। प्रतीक, चिह्न और अमूर्त संयोजन भारतीय दर्शन के लिए कोई नयी बात नहीं है। शिवलिंग को यदि भारतीय संस्कृति में प्रथम अमूर्त संकल्पना के रूप में स्वीकार किया जाए तो अमूर्तन की परंपरा भी हमारे लिए कोई नयी नहीं है। नया है तो उसका नया और भिन्न प्रयोग जो सोहन कादरी के काम मे नजर आता है। उनके समकालीन जीआर संतोष और वीरेन डे के काम में प्रतीकों और चिह्नों की अधिकता के साथ-साथ बहुरंगीता भी मिलती है जबकि सोहन कादरी एक चित्र में आमतौर पर एक ही रंग की विभिन्न रंगों का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह वे अध्यात्म की बढ़त की प्रक्रिया को अधिक प्रभावी तरीके से सामने ले आते हैं।  अपने चित्रों में वे कागज पर छेद करके या कभी सीधी और कभी जल की तरह हिलती रेखाएं बनाकर उनके बीच जब वृक्ष, पुष्प या सूर्य जैसे अक्स उभारते हैं तो जैसे वे भारतीय जीवन के पंचतत्व की अवधारणा को साकार कर रहे होते हैं। इनकी लयात्मकता उनके काम को संगीत और नृत्य के नजदीक ले जाती है जो उन्हें अपने गुरु से संस्कार में मिले हैं। कई बार वे अपने चित्रों को काले या गहरे रंग से दो हिस्सों में बांटकर दो दुनियाओं की अवधारणा को पुष्ट करते नजर आते हैं।    

Friday 11 September 2015

कला किसी और नाम से/ art with a different name

कला किसी और नाम से

वेद प्रकाश भारद्वाज

कला की दुनिया में होने वाले परिवर्तन अपेक्षाकृत धीमे माने जाते रहे हैं परंतु पिछले कुछ दशकों में जिस तरह तकनीकी विकास ने जीवन की गति बढ़ा दी है उसने कला में होने वाले परिर्वतनों की गति को भी बढ़ा दिया है। यूरोप में पिछली शताब्दी के मध्यम में कम्प्यूटर क्रांति से पहले इंस्टालेशन और उसके बाद वीडियो इंस्टालेशन या कम्प्यूटर आर्ट के नाम पर काफी सार्थक प्रयोग किये गये। भारत में भी उनकी देखादेखी प्रयोग किये जाने लगे। विवान सुंदरम जैसे कुछ कलाकारों ने इंस्टालेशन और वीडियो आर्ट के क्षेत्र में कई सार्थक प्रयोग किये परंतु देखादेखी के इस खेल में शामिल हुए अधिकांश युवा कलाकार इन माध्यमों की तकनीकी विशेषताओं और इनके प्रयोग के सामर्थ से परिचित हुए बिना केवल प्रयोग के नाम पर प्रयोग कर रहे हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि म्यूरल के बाद इंस्टालेशन और वीडियो इंस्टालेशन में नयी संभावनाएं देखने वाले कलाकार और कला पारखी निराश हुए हैं।

 पिछली शताब्दी में नब्बे के दशक में अहमदाबाद की एक कंपनी ने डिजिटल आर्ट को लेकर प्रयोग किया था जिसमें हुसेन, तैयब मेहता, अकबर पदमसी, मनजीत बावा सहित अनेक कलाकार शामिल हुए थे। परंतु वह प्रयोग बहुत आगे नहीं बढ़ पाया। हां, बाद में अकबर पदमसी ने डिजिटल आर्ट को कंप्यूग्राफी का नाम देकर एक प्रदर्शनी जरूर की। कई अन्य कलाकारों ने भी डिजिटल तकनीक में हाथ आजमाये परंतु कोई बड़ी कामयाबी नहीं पा सके। विवान सुंदरम ने अपने परिवार के पुराने फोटोग्राफ्स से "रिटेक ऑफ अमृता' जैसे डिजिटल प्रयोग जरूर किये परंतु वह भी डिजिटल आर्ट को कोई नया आयाम नहीं दे पाये। हां, इंस्टालेशन के क्षेत्र में जरूरत उन्होंने काफी महत्त्वपूर्ण काम किये हैं।

बहरहाल, नये माध्यमों में हाथ आजमा रहे युवा कलाकारों के काम को देखकर यह साफ पता चलता है कि उनके पास कोई दिशा नहीं है या वे अपने काम की दिशा तय नहीं कर पा रहे हैं। वे अधिक से अधिक प्रयोग कर लोकप्रियता की दौड़ में बने रहना चाहते हैं। ऐसे में सौफी गौर की यह बात बहुत अर्थपूर्ण हो जाती है कि कम्प्यूटर और वीडियो मात्र उपकरण हैं जो कलाकार की सृजनात्मक सोच को मूर्तरूप देने में सहायक भर हो सकते हैं। उनका यह भी कहना है कि डिजिटल आर्ट के रूप में पेश की जाने वाली अधिकांश कृतियां कला ही नहीं होतीं। वे कहती हैं कैनवस पर काम करने वाले कलाकार की तरह ही इंस्टालेशन पर या वीडियो और कम्प्यूटर पर काम करने वाले कलाकार में भी सौंदर्यशास्त्र के गुण होने चाहिएं, उसे फार्म, स्पेस और रंग के प्रति भी उतना ही संवेदनशील होना चाहिए ताकि उन्हें तकनीक के साथ पूरी तरह रूपांतरित कर सके। एक बार जब ऐसा हो जाता है तो आधुनिक कला भी परंपरागत कला के समान ही समृद्ध हो जाती है। कैनवस पर बनायी जाने वाली छवियों की ही तरह डिजिटल छवियां भी गहराई लिये होती हैं और उनमें भी लयात्मक संयोजन होता है।  सौफिया की ही तरह अधिकांश प्रयोगशील कलाकार यह मानते हैं कि डिजिटल आर्ट ने अनेक संभावनाएं होती हैं। एक व्यक्ति की कलात्मक क्षमता के मुकाबले उसमें छवियों को कई तरह से प्रयोग करने की संभावनाएं रहती हैं।

नये दौर के कलाकार, जो नये माध्यमों में काम कर रहे हैं, कला के माध्यम से अर्थ-उपार्जन को बहुत अधिक महत्त्व नहीं देते। वे मानते हैं कि उनका काम बहुत अच्छा नहीं बिकता। उनका काम केवल चुनिंदा कला प्रेमी ही खरीदते हैं। उनमें से अधिकांश यह भी कहते हैं कि वे सिर्फ बेचने के लिए "महान कृति' नहीं बनाते। क्या इसलिए कि उनका कोई खरीदार नहीं है या फिर उनकी कृति बेचने के लिए नहीं है? एक पेंटर के रूप में ऊंची कीमत पाने वाले सुब्रात कुंडू इधर इंस्टालेशन में भी काम करने लगे हैं। वे कहते हैं, "मैं स्वीकार करता हूं कि इस तरह का काम (अर्थात् इंस्टालेशन, वीडियो आर्ट आदि) धन प्राप्ति का माध्यम नहीं बन सकता।' पर साथ ही वे यह भी कहते हैं कि "परंतु यदि हम हर काम बेचने के लिए करते हैं तो हमें कलाकार कहलाने का कोई हक नहीं है। प्रत्येक कलाकार अपनी अभिव्यक्ति और प्रोत्साहन के लिए काम करता है। कलाकार आखिर केवल काम को मूल्यवान क्यों नहीं मानते और वे खाना कहां से आएगा इसकी चिंता से मुक्त क्यों नहीं हो जाते?

शिल्प और वीडियो इंस्टालेशन में काम करने वाले अरुण कुमार एचजी का भी कुछ-कुछ ऐसा ही सोचना है। दिल्ली के इंडिया हैबीटेट गैलरी में अपनी प्रदर्शनी "बुल्स आर वाचिंग' में उन्होंने एक बड़े ढांचे के साथ प्लास्टिक के खिलौनों और स्टील का प्रयोग किया था। उनका कहना है, "अपने काम को बेचना मेरी प्राथमिकता नहीं है। यदि लोग उसे पसंद करते हैं तो मैं उसी में खुश हूं।' अरुण कुमार अपने शिल्प निर्माण में परंपरागत सामग्री लकड़ी और तांबे के अलावा आधुनिक सामग्रियों का भी प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं, "मेरे काम को छूकर देखा जा सकता है, उनके साथ खेला जा सकता है और उन्हें तोड़ा भी जा सकता है। यही उनकी सच्ची प्रशंसा और स्वीकृति होगी। दूसरे शब्दों में कहें तो नये दौर के ये कलाकार अपने सृजन के लिए धन प्राप्ति के दूसरे माध्यम अपनाते हैं। कुंडू पेंटिंग करने के अलावा साल में एक म्यूरल जरूर बनाते हैं। अरुण कुमार एक प्रमुख खिलौना कंपनी के साथ डिजाइनर के रूप में काम करते हैं तो कामथ एक विज्ञापन एजेंसी में ग्राफिक डिजाइनर हैं।

(यह लेख 2005 में लिखा गया था। आज दस साल बाद एकबार फिर इस लेख को देने का वैसे कोई खास प्रयोजन नहीं है सिवाय इसके कि इस बीच कला की दुनिया में काफी बदलाव आ गया है। यहाँ तक कि आज भारत में ऐसे युवा कलाकारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जो पेंटिंग व शिल्प के दायरे से बाहर निकल कर नए प्रयोगों से नई सम्भावनाएं जगा रहे हैं।)

Thursday 3 September 2015

art exhibition by vimal chand, amit kalla and vijendra s vij at lalit kala academi galleries New Delhi

दिल्ली की ललित कला अकादेमी की गैलरियों में इन दिनों विमल चन्द की प्रदर्शनी गैलरी नम्बर 1 में चल रही है। जामिया विश्वविद्यालय से कला की शिक्षा प्राप्त विमल अपने जीवन्त भूदृश्यों के लिए पहचाने जाते हैं। अकादेमी की गैलरी नम्बर 3 में युवा चित्रकार व कवि विजेंद्र एस विज की पेंटिंग व ड्राइंग की प्रदर्शनी चल रही है। विजेंद्र ने इधर मध्य रात्रि के भ्रमों को शब्दों से जोड़ते हुए बहुत अर्थपूर्ण व सुंदर चित्रों की रचना की है। अकादेमी की गैलरी नम्बर 4 में युवा चित्रकार व कवि अमित कल्ला की प्रदर्शनी है। अमूर्त चित्रों में अमित ने एक ऐसी दुनिया को रचा है जो बहुअर्थी और बहु आयामी है। यह सभी प्रदर्शनियां 7 सितम्बर तक जारी रहेंगी।


<कला विमर्श पत्रिका ही नहीं है बल्कि एक मंच है कला और कलाकारों के बारे में सार्थक संवाद कायम करने का। इस मंच पर अभी तक हम मनजीत बावा, अर्पिता सिंह, जय झरोटिया, संजय भट्टाचार्जी आदि के बारे में सामग्री दे चुके हैं, हम चाहते हैं कि इसका और विस्तार कर वरिष्ठ कलाकारों के साथ-साथ युवा कलाकारों के सृजन पर भी चर्चा हो साथ ही प्रदर्शनियों की जानकारी व समिक्षा भी दी जाए। इसके लिए जरूरी है कि प्रदर्शनियों के बारे में हमारे पास जानकारी पहुंचे। इसके लिए हमें कलाकारों का सहयोग चाहिये क्योंकि उनके सहयोग के बगैर हम अपने अभियान में आगे नहीं बढ़ सकते।>

Tuesday 25 August 2015

painter sanjay bhattacharjee about cinema

सहज अभिनय और चुस्त पटकथा फिल्म की जान 

Natural acting and a tight script is the main thing in movie: sanjay bhattachargee
A talk with artist by ved prakash bhardwaj
संजय भट्टाचार्य  से वेद प्रकाश भारद्वाज की बातचीत 
Sanjay likes irfan khan, Anupam kher, vidhya balan, paresh rawal as an actors. He very much like Satyajeet Ray's movies. Once he did some paintings based on ray's movies. Sanjay did many portraits including president of India.
संजय भट्टाचार्य समकालीन भारतीय कला का एक चर्चित नाम है। फोटो रियलिजम उनकी अपनी पहचान है। बंगाल, मुंबई और राजस्थान के भूदृश्यों, पुरानी हवेलियो-मकानों के माध्यम से वह एक अलग यथार्थ सामने लाते हैं। संजय भट्टाचार्य ने सत्यजित राय की फिल्मों से  प्रभावित होकर एक पूरी चित्र श्रृंखला भी बनायी है। उन्होंने हिंदी फिल्म "शब्द' में एक दो-चार मिनट का रोल भी किया है। इसके अलावा बचपन में भी उन्होंने कुछ बांग्ला फिल्मों में काम किया है। फिल्मों के बारे में उनकी पसंद-नापसंद बहुत स्पष्ट है। प्रस्तुत है उनसे फिल्मों को लेकर हुई बातचीत के अंश :

आपको किस तरह फिल्में पसंद हैं?

मुझे ऐसी फिल्में अच्छी लगती हैं जिनमें बहुत अधिक तकनीकी चीजें न हों। उसमें एक बहुत अच्छी, कसी हुई कहानी हो जिसे बहुत ही सीधे और सरल तरीके से फिल्माया गया हो। पटकथा बहुत चुस्त होनी चाहिए और उसमें जो पात्र आते हैं, वह ऐसे न हों कि भर्ती के लगें। कहानी को और पात्रों को इस तरह एक सूत्र में बंधा होना चाहिए जैसे शास्त्रीय संगीत में होता है कि आप कोई राग सुनें तो उसमें आपको एक क्रमबद्ध विकास मिलता है। फिल्म में भी ऐसा ही होना चाहिए। कोई चरित्र ऐसा नहीं होना चाहिए जो जबरदस्ती भरा गया लगे।

फिल्म अभिनेताओं में आपको कौन-कौन पसंद रहे हैं?

फिल्म में अभिनय सबसे महत्वपूर्ण होता है। कलाकारों का अभिनय एकदम प्राकृतिक होना चाहिए, उसमें किसी तरह की बनावट या ओवर एÏक्टग नहीं होनी चाहिए। मैं समझता हूं कि हमारी फिल्म इंस्ट्री में सबसे अच्छा अभिनय अशोक कुमार करते थे। लगता ही नहीं था कि वे कैमरे के सामने अभिनय कर रहे हैं, बल्कि ऐसा लगता था जैसे वे किसी से बातचीत कर रहे हैं। एकदम सहज और स्वाभाविक अभिनय था उनका। वे उतना ही और वैसा ही अभिनय करते थे जैसी चरित्र की मांग होती थी। उन्होंने नायक से लेकर चरित्र अभिनेता व खलनायक तक की भूमिकाओं को जीवंत कर दिया था। आज के कई कलाकारों की फिल्में देखता हूँ तो लगता है कि कुछ ही फिल्मों में उन्होंने अच्छा अभिनय किया। शायद इसका कारण कहानी और निर्देशक की कमी है। यदि कहानी अच्छी न हो और निर्देशक सक्षम न हो तो वह अभिनेता-अभिनेत्री से बहुत अच्छा अभिनय नहीं करा पाता।  निर्देशन के मामले में सत्यजित राय का जवाब नहीं था। वो किसी को सड़क से पकड़ कर भी ले आते थे तो वो ऐसे एÏक्टग कर जाता था जैसे मंझा हुआ अभिनेता हो। तो फिल्म में अभिनय में निर्देशक की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह एक तरह से फिल्म का पिता होता है और उसी पर यह निर्भर करता है कि फिल्म कैसी बनेगी।

नये अभिनेताओं में मुझे इरफान खान का अभिनय अच्छा लगता है। हासिल और मकबूल में उन्होंने बहुत शानदार काम किया है। आज के जो लोकप्रिय फिल्म कलाकार हैं उनका अभिनय मुझे बहुत प्रभावित नहीं करता। मुख्य अभिनेता-अभिनेत्रियों की बजाय मुझे चरित्र अभिनेता अधिक अच्छे लगते हैं। जैसे अनुपम खेर, ऐके हंगल आदि के अभिनय में जान है। यदि इनके व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर किसी फिल्म में मुख्य भूमिका इनकी रखी जाए तो ये कमाल करत सकते हैं।  दरअसल हमारी फिल्म इंडस्ट्री में खालिस अभिनय जैसी चीज का कोई महत्व नजर नहीं आता। अब पंकज कपूर को ही ले लो। वह इतने जबरदस्त अभिनेता हैं पर उनकी प्रतिभा और व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर बहुत कम फिल्म बनी हैं। हमारे यहां तो पहले हीरो-हिरोइन को ध्यान में रखकर काम शुरू किया जाता है, चरित्र अभिनेताओं को तो बाद में चुना जाता है।

अब कॉमेडियन में केस्टो मुखर्जी को ही ले लो। जब वह कुछ बोल भी नहीं रहे होते थे तब भी अपना कमला दिखा जाते थे। "बांबे टू गोवा' फिल्म में तो वे शुरू से आखिर तक सोते ही रहे परंतु फिल्म के अन्य कॉमेडियन पर फिर भी भारी पड़े। आपको कौनसी फिल्में पसंद रही हैं?  पुरानी फिल्मो में मुझे ज्यादातर सत्यजित राय की फिल्में पसंद रही हैं। उनकी फिल्मों को लेकर मैंने एक चित्र श्रृंखला भी बनायी है जिसकी 1999-2000 में कोलकाता में प्रदर्शनी हुई थी। उसमें मैंने मूल फिल्म की कथा को लेकर अपनी फैंटेसी के आधार पर कुछ पेंटिग बनायी थीं। इनमें पाथेर पांचाली, शतरंज के खिलाड़ी, जलसाघर, चारुलता आदि शामिल हैं। आमतौर पर हिंदी फिल्मों में कोई विशेष प्रभाव लाने के लिए निर्देशक जहां लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करते हैं वही बात सत्यजित राय बहुत कम खर्च में करते थे।  हिंदी फिल्मों में अशोक कुमार की फिल्में तो पसंद रही ही हैं, अभिताभ बच्चन की भी कई फिल्में मुझे पसंद रही हैं, जैसे जंजीर, दीवार आदि। ये व्यावसायिक फिल्में होने के बाद भी इतनी बेहतरीन हैं कि लोगों को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। सत्यजित राय और अमिताभ बच्चन की फिल्मों एक बड़ा अंतर यह है कि सत्यजित राय की फिल्मे एक तरह से पूरी टीम की होती थीं जबकि अमिताभ की फिल्मों वनमैन शो होती हैं। यदि उनमें से अमिताभ को निकाल दिया जाए तो फिल्म धराशायी हो जाएगी।

फिल्म अभिनेत्रियों में आपको किनका अभिनय प्रभावित करता है? 

फिल्म अभिनेत्रियों में मुझे वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर, जया भादुड़ी आदि का काम बहुत अच्छा लगता है। बंगाल में माधवी मुखर्जी का काम मुझे पसंद रहा है। हिंदी में इधर हाल की अभिनेत्रियों में वो बात नजर नहीं आती कि उनका उल्लेख किया जाए। अब तो फिल्मों का पूरा पैटर्न ही बदल चुका है। अब तो फिल्मों में एक्शन और डांस पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। भव्यता को प्रमुखता दी जा रही है। अलबत्ता पिछले दिनों बनी फिल्म "परिणिता' की नायिका विद्या बालन का अभिनय अच्छा है। इसके अलावा आमिर खान के साथ "लगान' में ग्रेसी सिंह ने काफी अच्छा काम किया था और कई बार तो वह आमिर खान से आगे बढ़ती नजर आती थी परंतु उसके बाद उसकी एÏक्टग का कमाल देखने को नहीं मिला। शायद इसका कारण यह भी है कि आज फिल्मों में अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के ग्लैमर पर अधिक ध्यान दिया जाता है, उनकी अभिनय क्षमता को कोई महत्व नहीं देता।