Tuesday 29 September 2015

सृजन के सरोकार: अमित कल्ला

सृजन के सरोकार
युवा चित्रकार अमित कल्ला की डायरी से  

एक कवि और चित्रकार होने के नाते अपने काम में निरंतर लगे रहना बेहद सुखदायी होता हैए कागज़ पर लिखी गयी नयी कविता और कैनवास पर रंगसाज़ी दोनों ही मेरे लिए ऐसे अतीन्द्रियदर्शी सुकोमल अनुभव हैं जो यकीनन शब्दातीत हैं । अक्सर जब अपने अन्य साथी कलाकारों से इस मसौदे पर बात होती है तो पता चलता है कि  हम सभी कलाकारों की वैविध्यता भरी कला भाषा का व्याकरण एक ही है । सबकी अपनी . अपनी प्रार्थनाएं होने के बावज़ूद अनुभव के स्तरों पर भी अमूमन गहरी समानता हैए मसलन अनुभूति के आधारों पर कलाओं की इन विभिन्न धाराओं के बीच अभिन्न तालमेल और अन्तर्सम्बन्ध हैं चाहे वह दृश्य कलाओं की बात हो अथवा प्रदर्शनकारी यानि परफॉर्मिंग आर्ट कीए जहाँ कला और कलाकार के बीच होने वाला वह संवाद सबसे महत्वपूर्ण है और आखिर में उसका यथासंभव बचे रहने में उसकी सबसे बड़ी सार्थकता हैए लिहाज़ा जिसके भीतर सच और सहजता का अनुपम वास हैए जो सबके अपने . अपने व्यक्तिगत स्वभावानुसार भी है।

हमारे समाज में कला और शिल्प इन दोनों ही विषयों के बीच प्रमाणिकताए प्रासंगिकता और रचनात्मकता के स्फुरणों को लेकर भारी मतभेद हैं परस्पर दोनों के धरती और आकाश एक ही हैं किन्तु विकास की वैचारिकी में बहुत अंतर दिखाई पड़ते हैं कमोवेश मोटे तौर पर दोनों ही कला के अनन्य रूपक हैं जहाँ सतत अपने काम में लगे रहने की ज़रूरत होती है जिसके दौरान कभी कभी कुछ सवाल भी खड़े होते हैं इन सबके बीच मन अपने होने के मायने खोजने लगता हैए जिसका तात्पर्य आत्ममुग्धता से कदापि नहीं है अपितु यहाँ एक ऐसा परिशुद्ध विचार है जो अव्यैक्तिकता के सोपानों को छूना चाहता है जिसकी मंशा अपने भीतर के दायरों को खोलने की है । जिसकी गति उर्ध्व और अधो दोनों ही हैए जो एक दूसरे के सवालों से सवाल बनाते दीखते हैं ऐसे में एक सवाल बार बार सामने आकर खड़ा होता है . वह यह कि कलाकार होने के असल मायने क्या हैं।  बुनियादी तौर पर दुनिया में उसका होना क्या और क्यों हैं । उदाहरण के लिए चित्रकला के सन्दर्भ में अगर हम बात करें तो किसी स्तर पर कोई भी कह सकता है की वह चित्रकार है और पेंटिंग करना उसका काम है उसके द्वारा बनाये गए चित्र के द्वारा बड़ी आसानी से उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया जा सकता हैए क्या इन्ही तमाम बातों में एक कलाकार का होना छिपा है या फिर कुछ अन्य सतहें भी है जिन्हें जाँचना परखना बेहद आवश्यक है ।

मुझे लगता है कि कलाकार होना अपने आपमें बड़ी जिम्मेदारी भरा सबब है स्वयं एक कलाकार के लिए भी जिसे अपने होने को आधा . अधूरा जानना एक ग़फ़लत हैए इस क्रम में प्रसिद्ध जर्मन मनोविज्ञानी गेस्टॉल्ट और उनके बताये प्रत्यक्षीकरण का सूत्र याद आता हैं जहाँ वे "form अथवा personality as whole" का ब्यौरा देते हैं। सही अर्थों में एक सच्चे कलाकार का समूचा जीवन ही कलामय होता है जहाँ कला में जीवन या फिर जीवन में कला इस जुमले में फर्क कर पाना बहुत मुश्किलों भरा सबब है । निश्चित तौर पर किसी भी साधारण इंसान का कला को चुनना ही अपने आप में असाधारण . सा कृत्य है चाहे उसका ताल्लुख किसी भी विधा अथवा फॉर्म से हो ।  यह चुनाव ही दर . असल अपने आपमें बड़ी चुनौती हैए एक देखी अनदेखी तीखी तड़प को अपने साथ सींचती हुयी चुनौती जहाँ प्रतिपल कुछ नया सृजन करने की आकांशा हैए स्थापित लकीरों को मिटाने की चाहत के साथ अंतर्मन की उथलपुथल जिसकी समाज में स्थापित मूल्यों से टकराहट है । निरंतर कुछ नया रचने की उत्साह भरी जुम्बिशए जिसमे रचना प्रक्रिया के माध्यम से देश और काल सरीखे पैमानों के पार जाने की ताकत है।

कला कभी भी एकांतिक नहीं हो सकती चाहे वह किसी भी स्वरूप में क्यों न होए उसकी अपनी सामाजिकी जरूर होती हैए अपने परिवेश से जुड़ते संस्कार और सरोकार अवश्य होते हैं जो कि कलाकार के माध्यम से अनेक रूपाकारों में अभिव्यक्त होते हैंए रचना की प्रायोगिक भिन्नताए व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का उसका एक दूसरे से अलग होना इस पूरे क्रम में सौंदर्य का पर्याय है जिसके मर्म की संवेदनशीलता को जल्द से जल्द समझ जाना और उस भिन्नता का सम्मान करना एक संवेदनशील समाज के लिए भी बेहद जरुरी है। कलाकार का अंतःकरण  सदैव आंदोलित रहता है चेतन.अचेतन रूप से जिसकी सुनिश्चित अभिव्यक्ति उसके काम में साफ़ नज़र आती है जिसका आधार जीवन ही हैए ये बेशकीमती जिन्दगी और उससे जुड़े फ़लसफ़े, बेशक उसके उपान्तरण में सृजनकर्ता का अपना अपना तरीका हो जिसका सरोकार कलाकार की अपनी निजता और स्वतंत्रता से हो।

कहते हैं जो सहता है वही रहता हैए कलाकार के  जीवन में इस सहने के कई अर्थ होते हैंए जिससे गुज़र कर उसके विचार और उसकी कृति असल पकाव को पाते हैं ये सहने का दौर अनंत तकलीफों के साथ.साथ बड़ा रोचक भी होता है बारम्बार जहाँ खुद को गढ़ना और बिखेरना एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा हो जाता है और क्रमशः उसकी जिन्दगी का भी अंतरंग हिस्सा । आज पूरी दुनिया को यह दिखने लगा है कि विज्ञानं अपने अंतिम पड़ावों पर है और मानवीय सभ्यता उसकी संगति की सीमाओं को छू कर अपने मूल नैसर्गिक स्वरूप में लौटना चाहती हैए जिसे अपने दामन में ठहराव लिए कलाओं के सहारे की ज़रूरत है, सच्चे  लेखकए कविए कलाकारों की ज़रूरत है जो जीवन में फैले बेरुख़ी के बारूद को बे.असर करके कल्पना और यथार्थ के बीच साँस लेने की गुंजाईश पैदा करे उन अंतरालों को गढ़े जहाँ इस दौड़ती भागती दुनिया में कोई भी कुछ देर ठहर सके अपने भीतर उठते उन स्वरों को सुन सके अपने मन की कह सके जहाँ अधूरे में चाह हो पूरा होने की ताउम्र भटकता रहे वह रंगत पाने को बिन जाने ही उस पूरे पर मुक़र्रर अधूरे को ।

एक लम्बे समय के बीत जाने के बावजूद दुर्भाग्य से हमारा समकालीन कला परिदृश्य अपनी भाषा में यथोचित शब्दकोष और विषय संबंधी सही . सही  परिभाषाओं से कोसों दूर हैए जबकि प्रायोगिक स्तर पर किया जा रहा कलाकर्म काफी आगे है जिसमें फोटोग्राफीए सिनेमा से लेकर ग्राफ़िकए पेंटिंगए स्कल्पचर इत्यादि सम्मिलित हैं। तमाम तर्कों के बावज़ूद यहाँ कलाकार और कलमकार के बीच एक बड़ा फासला है कला भाषा के व्याकरणों को जोड़कर उन्हें निरूपित करने वाले हिंदी भाषी कम ही लोग हैंए काफी हद तक सिनेमा और संगीत ने तो अपने जादू को बरकरार रखा है जहाँ समय.समय पर बहुत कुछ अच्छा लिखा जा रहा है इन कलाओं की कैफियत ने बहुत से उम्दा आलोचक पैदा किये हैं जिनकी बदौलत लहर. दर.लहर बहुत कुछ किनारे आकर ठहरा भी है जिसकी अनुगूँज समाज में साफ़ सुनाई पड़ती हैए लेकिन ललित कलाओं के संदर्भ में तो हमारे हाल.बे.हाल हैं इक्के दुक्कों को छोड़कर यहाँ पूरा का पूरा सूपड़ा साफ़ हैए हालाँकि बड़ी भारी संख्या में देश भर के विश्वविद्यालयों में ललित कला विषय के अंतर्गत कला इतिहास में शोध करवाये जाते रहें हैंए ये शोधार्थी जो महज़ गुदड़ी के लाल साबित हो रहे हैं जिसके लिए पूरी की पूरी विवस्था जिम्मेदार है। आज जरुरत है कला के विभिन्न पक्षों को एक खास तबके से बाहर निकाल कर आम लोगों तक पहुँचाने की रचनाशीलता के प्रति जनसरोकार बढ़ाने कीए विचारशीलता के स्तर एक समूचा कला आंदोलन खड़ा करने कीए जिसके लिये हर एक विधा के कलाकारको भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। संवाद के नए सहज अर्थ रचने होंगे अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति को ओर ज्यादा संवेदनशील बनाकर नए समय की नयी शब्दावली के ताने बाने बुनने होंगे।

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