Friday 11 September 2015

कला किसी और नाम से/ art with a different name

कला किसी और नाम से

वेद प्रकाश भारद्वाज

कला की दुनिया में होने वाले परिवर्तन अपेक्षाकृत धीमे माने जाते रहे हैं परंतु पिछले कुछ दशकों में जिस तरह तकनीकी विकास ने जीवन की गति बढ़ा दी है उसने कला में होने वाले परिर्वतनों की गति को भी बढ़ा दिया है। यूरोप में पिछली शताब्दी के मध्यम में कम्प्यूटर क्रांति से पहले इंस्टालेशन और उसके बाद वीडियो इंस्टालेशन या कम्प्यूटर आर्ट के नाम पर काफी सार्थक प्रयोग किये गये। भारत में भी उनकी देखादेखी प्रयोग किये जाने लगे। विवान सुंदरम जैसे कुछ कलाकारों ने इंस्टालेशन और वीडियो आर्ट के क्षेत्र में कई सार्थक प्रयोग किये परंतु देखादेखी के इस खेल में शामिल हुए अधिकांश युवा कलाकार इन माध्यमों की तकनीकी विशेषताओं और इनके प्रयोग के सामर्थ से परिचित हुए बिना केवल प्रयोग के नाम पर प्रयोग कर रहे हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि म्यूरल के बाद इंस्टालेशन और वीडियो इंस्टालेशन में नयी संभावनाएं देखने वाले कलाकार और कला पारखी निराश हुए हैं।

 पिछली शताब्दी में नब्बे के दशक में अहमदाबाद की एक कंपनी ने डिजिटल आर्ट को लेकर प्रयोग किया था जिसमें हुसेन, तैयब मेहता, अकबर पदमसी, मनजीत बावा सहित अनेक कलाकार शामिल हुए थे। परंतु वह प्रयोग बहुत आगे नहीं बढ़ पाया। हां, बाद में अकबर पदमसी ने डिजिटल आर्ट को कंप्यूग्राफी का नाम देकर एक प्रदर्शनी जरूर की। कई अन्य कलाकारों ने भी डिजिटल तकनीक में हाथ आजमाये परंतु कोई बड़ी कामयाबी नहीं पा सके। विवान सुंदरम ने अपने परिवार के पुराने फोटोग्राफ्स से "रिटेक ऑफ अमृता' जैसे डिजिटल प्रयोग जरूर किये परंतु वह भी डिजिटल आर्ट को कोई नया आयाम नहीं दे पाये। हां, इंस्टालेशन के क्षेत्र में जरूरत उन्होंने काफी महत्त्वपूर्ण काम किये हैं।

बहरहाल, नये माध्यमों में हाथ आजमा रहे युवा कलाकारों के काम को देखकर यह साफ पता चलता है कि उनके पास कोई दिशा नहीं है या वे अपने काम की दिशा तय नहीं कर पा रहे हैं। वे अधिक से अधिक प्रयोग कर लोकप्रियता की दौड़ में बने रहना चाहते हैं। ऐसे में सौफी गौर की यह बात बहुत अर्थपूर्ण हो जाती है कि कम्प्यूटर और वीडियो मात्र उपकरण हैं जो कलाकार की सृजनात्मक सोच को मूर्तरूप देने में सहायक भर हो सकते हैं। उनका यह भी कहना है कि डिजिटल आर्ट के रूप में पेश की जाने वाली अधिकांश कृतियां कला ही नहीं होतीं। वे कहती हैं कैनवस पर काम करने वाले कलाकार की तरह ही इंस्टालेशन पर या वीडियो और कम्प्यूटर पर काम करने वाले कलाकार में भी सौंदर्यशास्त्र के गुण होने चाहिएं, उसे फार्म, स्पेस और रंग के प्रति भी उतना ही संवेदनशील होना चाहिए ताकि उन्हें तकनीक के साथ पूरी तरह रूपांतरित कर सके। एक बार जब ऐसा हो जाता है तो आधुनिक कला भी परंपरागत कला के समान ही समृद्ध हो जाती है। कैनवस पर बनायी जाने वाली छवियों की ही तरह डिजिटल छवियां भी गहराई लिये होती हैं और उनमें भी लयात्मक संयोजन होता है।  सौफिया की ही तरह अधिकांश प्रयोगशील कलाकार यह मानते हैं कि डिजिटल आर्ट ने अनेक संभावनाएं होती हैं। एक व्यक्ति की कलात्मक क्षमता के मुकाबले उसमें छवियों को कई तरह से प्रयोग करने की संभावनाएं रहती हैं।

नये दौर के कलाकार, जो नये माध्यमों में काम कर रहे हैं, कला के माध्यम से अर्थ-उपार्जन को बहुत अधिक महत्त्व नहीं देते। वे मानते हैं कि उनका काम बहुत अच्छा नहीं बिकता। उनका काम केवल चुनिंदा कला प्रेमी ही खरीदते हैं। उनमें से अधिकांश यह भी कहते हैं कि वे सिर्फ बेचने के लिए "महान कृति' नहीं बनाते। क्या इसलिए कि उनका कोई खरीदार नहीं है या फिर उनकी कृति बेचने के लिए नहीं है? एक पेंटर के रूप में ऊंची कीमत पाने वाले सुब्रात कुंडू इधर इंस्टालेशन में भी काम करने लगे हैं। वे कहते हैं, "मैं स्वीकार करता हूं कि इस तरह का काम (अर्थात् इंस्टालेशन, वीडियो आर्ट आदि) धन प्राप्ति का माध्यम नहीं बन सकता।' पर साथ ही वे यह भी कहते हैं कि "परंतु यदि हम हर काम बेचने के लिए करते हैं तो हमें कलाकार कहलाने का कोई हक नहीं है। प्रत्येक कलाकार अपनी अभिव्यक्ति और प्रोत्साहन के लिए काम करता है। कलाकार आखिर केवल काम को मूल्यवान क्यों नहीं मानते और वे खाना कहां से आएगा इसकी चिंता से मुक्त क्यों नहीं हो जाते?

शिल्प और वीडियो इंस्टालेशन में काम करने वाले अरुण कुमार एचजी का भी कुछ-कुछ ऐसा ही सोचना है। दिल्ली के इंडिया हैबीटेट गैलरी में अपनी प्रदर्शनी "बुल्स आर वाचिंग' में उन्होंने एक बड़े ढांचे के साथ प्लास्टिक के खिलौनों और स्टील का प्रयोग किया था। उनका कहना है, "अपने काम को बेचना मेरी प्राथमिकता नहीं है। यदि लोग उसे पसंद करते हैं तो मैं उसी में खुश हूं।' अरुण कुमार अपने शिल्प निर्माण में परंपरागत सामग्री लकड़ी और तांबे के अलावा आधुनिक सामग्रियों का भी प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं, "मेरे काम को छूकर देखा जा सकता है, उनके साथ खेला जा सकता है और उन्हें तोड़ा भी जा सकता है। यही उनकी सच्ची प्रशंसा और स्वीकृति होगी। दूसरे शब्दों में कहें तो नये दौर के ये कलाकार अपने सृजन के लिए धन प्राप्ति के दूसरे माध्यम अपनाते हैं। कुंडू पेंटिंग करने के अलावा साल में एक म्यूरल जरूर बनाते हैं। अरुण कुमार एक प्रमुख खिलौना कंपनी के साथ डिजाइनर के रूप में काम करते हैं तो कामथ एक विज्ञापन एजेंसी में ग्राफिक डिजाइनर हैं।

(यह लेख 2005 में लिखा गया था। आज दस साल बाद एकबार फिर इस लेख को देने का वैसे कोई खास प्रयोजन नहीं है सिवाय इसके कि इस बीच कला की दुनिया में काफी बदलाव आ गया है। यहाँ तक कि आज भारत में ऐसे युवा कलाकारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जो पेंटिंग व शिल्प के दायरे से बाहर निकल कर नए प्रयोगों से नई सम्भावनाएं जगा रहे हैं।)

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