Monday 28 September 2015

आध्यात्म और कला का संगम: सोहन कादरी/ art of sohan kadri

आध्यात्म और कला का संगम
सोहन कादरी की कला पर एक टिप्पणी
वेद प्रकाश भारद्वाज

भूमंडलीकरण के इस दौर में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय कला को व्यापक स्वीकृति मिली है और आज एकदम नये कलाकार भी पश्चिमी कला जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। पर एक समय था जब भारतीय कला को पश्चिम में कोई महत्त्व नहीं दिया जाता था विशेषरूप से गुलामी के समय में। यह स्थिति बदली आजादी के बाद। आजादी के बाद भारतीय कलाकारों ने जब कला के पश्चिमी मुहावरे को जो अंग्रेजों की देन था, छोड़कर भारतीय दृष्टि को कला के केंद्र में लाने का प्रयास किया तो उन्हें स्वाभाविक रूप से अपने अतीत में लौटना पड़ा। अतीत जिसमें ब्रिटिश गुलामी के पहले की कला में दर्शन और अध्यात्म प्रमुख था, वह अमूर्तन की दिशा में आगे बढ़ने वाले कलाकारों को अपनी अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त लगा। यही वजह है कि सैयद हैदर रजा, जीआर संतोष, वीरेन डे और सोहन कादरी जैसे कलाकारों ने अपनी अभिव्यक्ति के केंद्र में भारतीय दर्शन और अध्यात्म को रखा जो उनकी भारतीय पहचान कायम करता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय कलाकार के रूप में पहचान बनाने वाले अन्य कलाकारों, जैसे हुसेन, तैयब मेहता, अकबर पदमसी आदि के काम में भी भारतीयता ही वह गुण है जिसके कारण उन्हें देश से बाहर भी स्वीकार किया गया। इसका एक प्रमाण यह है कि सूजा ने भले ही सबसे पहले पश्चिम में ख्याति प्राप्त की हो परंतु उन्हें पश्चिमी कला जगत में एक गंभीर कलाकार के रूप में बहुत कम स्वीकृति मिल पायी। बहरहाल, अमूर्त चित्रकारों में सोहन कादरी अपने समकालीनों से इस अर्थ में अलग साबित हुए हैं कि एक तो अध्यात्म और दर्शन का उनके निजी जीवन में गहरा प्रभाव रहा क्योंकि उनके गुरु भीकम गिरी एक मंदिर में नर्तक और संगीतज्ञ थे। इसके अलावा सोहन कादरी पर उनके गांव के एक सूफी का भी गहरा प्रभाव पड़ा जिनके प्रभाव से ही उन्होंने बाद में अपने नाम के साथ कादरी शब्द जोड़ा। रजा, संतोष और डे जहां तंत्र और दर्शन के विभिन्न प्रतीकों और चिह्नों को लेकर अभिव्यक्ति के नए आयाम स्थापित करते रहे वहीं सोहन कादरी ने उनके आगे की यात्रा करते हुए अपने चित्रों को अमूर्तन की वह भाषा दी जिसमें भारतीय दर्शन और अध्यात्म की आत्मा के साथ-साथ आधुनिक कला का मुहावरा भी शामिल है। और यहीं आकर सोहन कादरी अध्यात्म और तंत्र को पेंट करने वाले अपने समकालीन महान कलाकारों से अलग और विशिष्ट नजर आते हैं। भारतीय अमूर्त कला के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक सोहन कादरी ने साठ के दशक में अमूर्तन को भारतीय दर्शन और संस्कृति से जोड़ कर जो कला यात्रा शुरू की वह आज उस मुकाम तक पहुंच चुकी है जहां वह अपने समकालीनों से एकदम अलग नजर आते हैं। भारत में तंत्र-पेंटिंग करने वालों में जीआर संतोष और वीरेन डे का नाम प्रमुखता से लिया जाता है परंतु कादरी का काम तंत्र पेंटिंग से आगे जाकर अध्यात्म की ऊंचाई तक पहुँचता है। दिल्ली की कुमार गैलरी में उनकी प्रदर्शनियाँ  देखना हर बार एक नये अनुभव से गुजरने के समान रहा। हेंडमेड पेपर पर एक ही रंग की विभिन्न रंगतों का प्रयोग करते हुए पेपर पर कहीं-कहीं कटिंग के जरिये जो छिद्र और रेखाओं के माध्यम से रूपांकन उन्होंने किये वह उनके काम का अपना अलग अंदाज है। उनका काम हर बार देखने वाले को बाहरी दुनिया के बजाय आंतरिक संसार से जोड़ता है।  सोहन कादरी पर अध्यात्म का गहरा प्रभाव है जो उन्हें बचपन में ही अपने गुरु भीकम गिरी से मिला जो उनके गांव में शिव मंदिर में नर्तक और संगीतज्ञ थे। कला का संस्कार उन्हें सबसे पहले उन्हीं से मिला। उसके साथ ही उनके गांव के एक सूफी संत ने भी उनके बचपन पर गहरा प्रभाव डाला। सूफी जो अपने आपको कादरी नहीं कहते थे, एक आइना अपने हाथ में रखते थे जिसमें वे खुद को बार-बार देखते रहते थे। उन्हीं से सोहन कादरी ने जाना कि आइने में हम जो दिखते हैं दरअसल वैसे होते नहीं हैं। एक तरफ अपने गुरु से मिला संगीत और नृत्य का संस्कार और दूसरी तरफ मजार की शांति, इन दोनों ने सोहन कादरी को इतना प्रभावित किया कि उनके काम में भी आकृतियों का नृत्य और संगीत दिखाई-सुनाई देता है तो रंगों की शांति भी।  सोहन कादरी अपने मानस के मुसाफिर हैं जो टैक्सचर के माध्यम से अमूर्तन का आनंद रचते हैं। समय और व्योम की अनंत संभावनाओं को रचते हुए वह एक रचनात्मक अनुभव को अपने चित्रों में इस तरह सामने लाते हैं कि वह देखने वाले का अनुभव भी बन जाता है। उनकी पेंटिंग में मौजूद आकार उपस्थित होकर भी अनुपस्थित रहते हैं और उसकी जगह उपस्थित रहता है ज्यामितीय आकारों का उच्च और निम्न प्रभाव। नि:संदेह उनका प्रत्येक चित्र अनुभव के विभिन्न स्तरों के संबंध को व्यक्त करता है।  उनके काम को देखकर ऐसा लगता नहीं है कि उन्हें बनाया गया है, बल्कि लगता है जैसे वे किसी ध्यानस्थ योगी की साधना से निकले हैं। अपने हाल ेचित्रों में उन्होंने कागज पर कहीं एक दिशा में छिद्रों के माध्यम से तो कहीं लाइनों के माध्यम से जीवन की भिन्न अवस्थाओं की अभिव्यक्ति की है। इधर के काम में कुछ चित्रों में उन्होंने शिवलिंग को और अधिक अमूर्त तरीके से पेंट किया है। प्रतीक, चिह्न और अमूर्त संयोजन भारतीय दर्शन के लिए कोई नयी बात नहीं है। शिवलिंग को यदि भारतीय संस्कृति में प्रथम अमूर्त संकल्पना के रूप में स्वीकार किया जाए तो अमूर्तन की परंपरा भी हमारे लिए कोई नयी नहीं है। नया है तो उसका नया और भिन्न प्रयोग जो सोहन कादरी के काम मे नजर आता है। उनके समकालीन जीआर संतोष और वीरेन डे के काम में प्रतीकों और चिह्नों की अधिकता के साथ-साथ बहुरंगीता भी मिलती है जबकि सोहन कादरी एक चित्र में आमतौर पर एक ही रंग की विभिन्न रंगों का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह वे अध्यात्म की बढ़त की प्रक्रिया को अधिक प्रभावी तरीके से सामने ले आते हैं।  अपने चित्रों में वे कागज पर छेद करके या कभी सीधी और कभी जल की तरह हिलती रेखाएं बनाकर उनके बीच जब वृक्ष, पुष्प या सूर्य जैसे अक्स उभारते हैं तो जैसे वे भारतीय जीवन के पंचतत्व की अवधारणा को साकार कर रहे होते हैं। इनकी लयात्मकता उनके काम को संगीत और नृत्य के नजदीक ले जाती है जो उन्हें अपने गुरु से संस्कार में मिले हैं। कई बार वे अपने चित्रों को काले या गहरे रंग से दो हिस्सों में बांटकर दो दुनियाओं की अवधारणा को पुष्ट करते नजर आते हैं।    

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