Tuesday 28 October 2014

विविधता भारतीय कला को आगे बढ़ाएगी: मनु पारेख

विविधता भारतीय कला को आगे बढ़ाएगी: मनु पारेख


भारतीय कला के भविष्य को लेकर आप क्या सोचते हैं। क्या आपको लगता है कि भारतीय कला और कलाकारों का भविष्य बहुत अच्छा है?

भारतीय कला जगत विविधतापूर्ण है और इसी विविधता में भविष्य की संभावनाएं छिपी हैं। इस समय कला जगत में काफी अच्छा काम हो रहा है। एक तरफ 88 साल के हुसेन सक्रिय हैं तो दूसरी तरफ एकदम नयी पीढ़ी के कलाकार हैं। सब अलग-अलग माध्यमों में काम कर रहे हैं। मुझे यह एक बड़ी सकारात्मक स्थिति लगती है। भारतीय कला में इतनी विविधता है कि उस पर कोई एक तकनीक या शैली हावी नहीं हो सकती। यह भारतीय कला की बड़ी ताकत है जो उसे आगे बढ़ने में मदद करेगी। मुझे युवा कलाकारों में काफी संभावनाएं दिखायी देती हैं। वह अधिक बेहतर और परिपक्व काम कर रहे हैं। उनमें ऊर्जा है और परिणाम जल्दी प्राप्त करने की आकांक्षा भी जो उन्हें तेजी से आगे बढ़ने में मदद करती है। युवा कलाकार भारतीय कला को भारतीय जड़ों से जोड़ते हुए उसे समकालीन और आधुनिक मुहावरा दे सकते हैं।   किसी एक तरह की शैली या तकनीक हमारे यहां हावी नहीं है।  यदि यथार्थवादी और मूर्त काम हो रहे हैं तो अमूर्तन में भी अच्छा काम हो रहा है। ग्राफिक्स में, इंस्टालेशन में और शिल्प में भी लोग नया-नया काम कर रहे हैं। कुछ कलाकार एकदम रियलिस्टिक काम कर रहे हैं परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय कला की पारंपरिक दृष्टि फिर से स्थापित हो रही है। इस तरह के काम में भी आधुनिकता और समकालीनता जरूरी होती है। 
आज के भारतीय कला जगत की एक विशेषता यह भी है कि अब माध्यमों और कला सामग्रियों के प्रयोग को लेकर कलाकार अधिक स्वतंत्र हो गये हैं। ऐसा नहीं है कि आप  कैनवस पर तैल रंगों से ही काम करें। और यह जो मिक्स मीडिया का जमाना आया है उसने कला को जो प्रयोगशीलता दी है, उससे भी काफी संभावनाएं जगी हैं।  मिक्स मीडिया में आप फ्यूजन कर सकते हैं, कुछ छवियों को लेकर पेस्ट कर सकते हैं, कोलाज बनाये जा सकते हैं। मिक्स मीडिया में किसी फार्म का इस्तेमाल करना भी एक तरह का यथार्थवाद है। मुझे लगता है कि यह कलाकार के लिए एक बड़ी स्वतंत्रता बन जाती है जिसके चलते तकनीक कभी भी कला पर हावी नहीं हो सकती। इतना जरूर है कि इसमें जो क्राफ्ट का पक्ष है उसे संभालना भी बहुत जरूरी होता है क्योंकि सिर्फ सिर्फ कुछ नया करने, मिक्स मीडिया या फ्यूजन या अन्य कोई नयी तकनीक का इस्तेमाल भर करने से ही कला नहीं हो जाती। इसके लिए एक विजन का होना, एक साफ दृष्टि का होना भी बहुत जरूरी है।

इधर कई युवा कलाकार भारतीय कला परंपरा से खुद को जोड़ते हुए चीजें और प्रकृति जैसी है उसे उसी वास्तविक चित्रण कर रहे हैं और बाजार की दृष्टि से भी काफी सफलता हासिल कर रहे हैं। तो क्या इसे भारतीय कला दृष्टि की वापसी माना जाए?

 नहीं, ऐसा नहीं है। मुझे लगता है कि अलग-अलग पाकेट में अलग-अलग लेबल का काम हो रहा है। किसी एक तकनीक में ज्यादा काम हो रहा है, ऐसा मुझे नहीं लगता। अलग-अलग शैली और दृष्टि से लोग काफी अच्छा काम कर रहे हैं। मुझे लगता है कि इसमें जो एक तरह की डायवर्सिटी है वह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। जहां तक भारतीय कला परंपरा की बात है तो भारतीय कला के भविष्य के लिए मुझे यह जरूरी लगता है कि हम किसी भी तकनीक में काम करें, उसमें भारतीय दृष्टि होनी चाहिए। यह अभी कम हो रहा है। कई युवा कलाकार लोक कला की शैली में काम कर रहे हैं। यह अच्छा है। पर इसमें अभी बहुत कुछ किया जाना है। अपनी जड़ों से जुड़ाव होना चाहिए। मैं परंपरा से जोड़ने की बात नहीं कर रहा पर एक समकालीन भारतीय कला होनी ही चाहिए। देखिये, अपनी कला भाषा बनाने में समय लगता है और समकालीन भाषा बनाने में तो और भी अधिक समय चाहिए। फिर भी कुछ तो शुरू हुआ ही है। जैसे इंस्टालेशन आया है। मुझे इंस्टालेशन पसंद है क्योंकि मैं थियेटर का भी आदमी हूं। थियेटर में जैसे प्रॉप जरूरी है जो आपको थीम के बारे में बहुत कुछ बता देता है, तो मुझे लगता है कि इंस्टालेशन भी एक तरह का स्टिल लेवल का एक डिलाइव है, एक प्रॉप है और इसमें भी आदमी बहुत कुछ बोल सकता है। पर इसमें भी एक समस्या है कि इस पर भी बाहर की छाप बहुत अधिक होती है जबकि विदेशों में इंस्टालेशन में या अन्य माध्यमों में काम करने वाले कलाकार अपने देश को, अपनी परंपरा को प्राथमिकता देते हैं। जर्मन पेंटर कीपर बहुत बड़ा कलाकार और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाने के बावजूद जब भी कला में बात करता है तो जर्मनी के पाइंट ऑफ व्यू से बात करता है।  यह सही है कि भारतीय कला पर पश्चिमी कला का काफी प्रभाव है। इसका एक कारण तो यह है कि हमारे यहां कला को पंसद और प्रोत्साहित करने वाला जो वर्ग है वह पश्चिमी संस्कृति में रचा-बसा है। यदि हम अपने आसपास की चीजों को कला में लाते हैं तो वह उसे आधुनिक नहीं लगती। यदि अपनी कला को आधुनिक बनाना है तो पश्चिमी तत्त्व लाने होते हैं जो उन्हें पसंद आते हैं।


इधर के वर्षों में भारत में इंस्टालेशन के प्रति भी रुझान बढ़ा है परंतु उसपर भी पश्चिम का प्रभाव अधिक है। एक मजेदार बात यह है कि पिछले दिनों वाशिंगटन में मैंने एक जर्मन कलाकार का इंस्टालेशन देखा जिसमें उसने भारतीय संदर्भों का इस्तेमाल किया था।  हमारे यहां एक समस्या यह है कि यदि हम अपनी कला में आसपास की चीजों को लाते हैं तो कला को पंसद करने वाला जो कथित वर्ग है उसे उसमें आधुनिकता नहीं लगती। यदि आधुनिकता लानी है पश्चिम को अपनी कला में लाओ। तो यहां का जो कला को प्रोत्साहित करने वाला वर्ग है उसकी और क्यूरेटरों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे भारतीय संदर्भों वाले काम को प्रोत्साहित करें।   इसके पीछे बाजार भी एक बड़ा कारण है। हमारे आज के जीवन पर बाजार और उसकी पश्चिमी मनोवृत्ति अधिक हावी होती जा रही है। इसलिए पश्चिम से प्रभावित कला को ज्यादा तरजीह दी जा रही है। परंतु इसकी कोई तो सीमा होगी। कहीं तो यह तय करना पड़ेगा कि आप पश्चिम से कितने अलग हैं। भारत में तो हम आधुनिक लगते हैं परंतु जब किसी पश्चिमी कलाकार की कृतियों के साथ भारतीय कलाकार की कृतियों को रखकर देखा जाता है तो वहां हम आधुनिक नहीं लगते। ऐसे में पश्चिम से अलग लगने के लिए हमें अपनी जड़ों से जुड़ना होगा, अपनी परंपरा का समकालीन संदर्भों में प्रयोग करना होगा। भारतीय फिल्मों में जैसे सत्यजित रे आदि ने किया, जिसके कारण उन्हें विदेशों में नाम भी मिला, तो कहीं कहीं उनमें अपने रूट की बात है। हाल में भी बाहर बनने वाली हिंदी फिल्मों और अपने देश में दीपा मेहता आदि की फिल्मों में यदि वे किसी किसी रूप में अपनी जड़ों की बात नहीं करते हैं तो पश्चिम में भी आपको स्वीकार नहीं किया जाएगा। यह भी देखने-सोचने की बात है कि  आप पश्चिम की नजर में चढ़ने के लिए भारतीयता लाएंगे या अपनी जड़ों से जुड़े होने के कारण ऐसा करेंगे।   भारतीय कलाकारों के साथ यह दुविधा है कि वह ऐसा कैसे करें, मेरे साथ भी यह दुविधा है। पर कलाकार इस दुविधा से उबरने के लिए कोई कोई रास्ता निकाल ही लेते होंगे। अपनी जड़ों से जुड़ते हुए समकालीन बने रहना काफी मुश्किल काम है। ऐसे में युवा कलाकारों से भविष्य में आशा की जा सकती है। कई युवा कलाकार भारतीय पारंपरिक शैली और लोक शैली को आधार बनाकर आधुनिक भारतीय कला का निर्माण कर रहे हैं। उनमें ऊर्जा है और आगे बढ़ने की आकांक्षा भी। इसलिए मुझे लगता है कि भविष्य की अधिक संभावनाएं युवा वर्ग में हैं।  हमारे कला आलोचकों और क्यूरेटरों को भी ऐसी कला को प्रोत्साहित करना होगा।

 इधर कई युवा कलाकार प्राचीन भारतीय कला परंपरा के अनुरूप एकदम यथार्थवादी चित्रण कर रहे हैं, तो क्या इसे भारतीय कला दृष्टि की वापसी माना जाए?

नहीं, ऐसा नहीं है। मुझे लगता है कि अलग-अलग पाकेट में अलग-अलग तरह का काम हो रहा है। किसी एक तकनीक या शैली में ज्यादा काम हो रहा है, ऐसा मुझे तो नहीं लगता। अलग-अलग शैली और दृष्टि से लोग काफी अच्छा काम कर रहे हैं। मुझे लगता है कि इसमें जो एक तरह की डायवर्सिटी है, वह ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।

पिछले कुछ समय में भारतीय कला जगत में बाजार एक महत्त्वपूर्ण घटक हो गया है जो कला को और कलाकार को निर्देशित कर रहा है। इसे आप किस दृष्टि से देखते हैं?

यह सही है कि आने वाला समय में बाजार ही प्रमुख होने वाला है परंतु इससे भारतीय कलाकारों के लिए अवसर भी बढ़े हैं। उन्हें प्रचार माध्यमों और बाजार का काफी सहारा मिल रहा है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल प्रचार से या बाजार में बिक जाने से कोई कलाकार बड़ा हो जाएगा। तैयब मेहता जिंदगी भर बहुत अधिक कीमत हासिल नहीं कर सके परंतु अब जब उनका नाम हो गया है तो वह करोड़ में बिकते हैं। ऐसा इसलिए है कि उनके काम में दम है। हुसेन भी काम में दम होने के कारण महंगे कलाकार बन पाये।

बाजार के विस्तार से यह प्रश्न कुछ लोगों को परेशान करता है कि क्या कला का भविष्य बाजार तय करेगा?

मैं समझता हूं कि बाजार की भूमिका होगी परंतु बाजार हमेशा अच्छी चीजों को पसंद करता है। इसलिए जिस कलाकार के काम में दम होगा बाजार उसे ही आगे बढ़ाएगा। हां! इतना जरूर है कि भारत में कला बाजार के विकास ने युवा कलाकारों को भी काम करने के लिए आधार दिया है।  इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय कला जगत में भविष्य में काफी संभावनाएं हैं। 

क्या वजह है कि भारतीय कला परंपरा इतनी समृद्ध होने और समकालीन कलाकारों में भी भरपूर सजगता, सामाजिक प्रतिबद्धता होने के बावजूद पश्चिम की तरह हमारे यहां कोई कला आंदोलन नहीं हो पाया?

भले ही हमारे यहां पश्चिम की तरह कोई कला आंदोलन नहीं हो पाया और होने की संभावना है परंतु आजादी के बाद वैचारिक स्तर पर कुछ पहल हुई हैं, अलग-अलग जगह, जैसे मुंबई में सुजा, रजा, आरा आदि ने मिलकर प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप बनाया था। बडौदा में भी इसी तरह का एक ग्रुप बना था। मैं जिन दिनों कोलकाता में था तो वहां सोसायटी ऑफ कंटेंपररी आर्टिस्ट बनाकर लोगों ने अपने स्तर पर अलग काम करने की कोश्शि की जिसके चलते गणेश पाइन और विकास भट्टाचार्य जैसे कलाकार सामने आये।  पश्चिम में जो कला आंदोलन हुए, उनके पीछे दो विश्व युद्धों के कारण चीजों को तोड़ने, नया गढ़ने की इच्छा उत्पन्न होना एक बड़ा कारण था। हमारे देश में ऐसी कोई स्थिति नहीं रही। आजादी के एक नया भारत बन रहा था। नेशनल मूवमेंट था। इसलिए कला में कुछ अपनापन लाने की और उसे आधुनिक बनाने की भावना थी। प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप और उसके जैसे अन्य संगठनों-समूहा का लक्ष्य कला में आधुनिकता और समकालीनता को स्थापित करते हुए भारतीय कला जगत में विविधता को बनाये रखना था। वह किसी एक कला शैली या तकनीक को हावी होने नहीं देना चाहते थे। उस समय के कलाकार केवल कला साधना करते थे, नौकरी या अन्य कोई काम उन लोगों ने नहीं किया। उसके बाद परिदृश्य काफी बदल गया। आजादी के बाद की दूसरी पीढ़ी के कलाकारों को, जिनमें मैं भी शामिल हूं, कला के अलावा जीवन यापन के लिए दूसरे काम भी करने पड़े। इसलिए भी उनके पास कला के क्षेत्र में किसी प्रकार के आंदोलन के लिए अवकाश नहीं रहा।  आज स्थिति तेजी से बदल रही है। मीडिया और बाजार का कलाकारों को सहारा मिलने लगा है। पब्लिसीटी मिलने लगी है। हां, मैं इतना जरूर कहना चाहूंगा कि आर्ट आइसोलेशन में नहीं होता। उसमें एक तरह के लाइट माइंडेड लोगों का होना, उनमें बातचीत कि क्या होना चाहिए और क्या नहीं, ये बातें होना बहुत जरूरी है। यह अब थोड़ा कम हो गया है। जिस स्तर पर संवाद पहले कलाकारों में था, वह अब नहीं रह गया है।  भारतीय समाज और परिवारों में पिछले सालों में बड़े परिवर्तन हुए हैं फिर भी उसमें एक तरह की परंपरावादिता कायम है। ऐसे समाज से आने वाला कलाकार कलाकार बनने को ही एक बड़ा काम मानता है। उसका सारा जीवन कलाकार बनने की प्रक्रिया में ही निकल जाता है। ऐसे में उससे किसी तरह के वैचारिक या सैद्धांतिक आंदोलन की आशा नहीं की जा सकती। हां! इतना जरूर है कि भारतीय कला का भविष्य काफी उज्ज्वल है। कारण कि एक तो भारतीय कला में इतनी अधिक विविधता है कि वह लगातार आगे बढ़ती रहेगी, दूसरे युवा कलाकारों में नया काम करने की ऊर्जा है और उन्हें कला साधना के लिए समुचित सहारा भी मिल रहा है, इसलिए वह कुछ नया और बेहतर काम कर सकते हैं। 

दिल्ली के रवींद्र भवन में आपकी एक प्रदर्शनी लगी थी जिसमें मिक्स मीडिया में आपका काम था। कला और प्रयोग की दृष्टि से वह काम काफी अच्छा था परंतु बाजार की दृष्टि से बहुत सफल नहीं रहा। इसका क्या कारण मानते हैं?

 मेरी उस प्रदर्शनी के साथ एक समस्या यह थी कि उसमें शामिल कृतियां पूरी तरह भारतीय संदर्भों से जुड़ी हुई थीं इसलिए बाजार को वह तुरंत कला या आधुनिक कला नहीं लगी। इसीलिए उस प्रदर्शनी में शामिल काम कम बिका परंतु उसकी चर्चा काफी हुई थी। मुझे उसमें यही देखने को मिला कि हमारे यहां जो कला को पसंद करने वाला वर्ग है उसे उसमें आधुनिकता नहीं लगी। मैंने वह काम इस दृष्टि से किया था कि जर्मन पेंटर कीपर इतना बड़ा कलाकार होकर भी जर्मन की दृष्टि से ही काम करता है। उसका बचपन मोटर मैकेनिकों के मोहल्ले में बीता था इसलिए उसके काम में लेड का इस्तेमाल करना या पुर्जों का इस्तेमाल करना यथार्थ का एक हिस्सा था। मेरे अंदर हमेशा यह जिद रही है कि मैं भारतीय दृष्टि से काम क्यों करूं। उसके तीन-चार साल पहले मैंने "एनिमल एंड वायलेंस' पर शो किया था। उसम वालग्राफी की तकनीक का इस्तेमाल किया गया था जिसमें लोग चालकोल से दीवार पर रेखांकन किया करते हैं। मैंने चारकोल की जगह सिमेंट का इस्तेमाल किया था। सिमेंट पर कोयले से रेखांकन किये थे। वो पापुलर आर्ट के आसपास की चीज थी। उसमें भी जिद यही थी कि भारतीय दृष्टि से काम करूं। मुझे मकबरों और मंदिरों के आसपास का वातावरण हमेशा आकर्षिक करता रहा है। वह एकदम सीधा और सच्चा लगता है। तो जिस तरह मंदिरों की दीवारों पर या घरों की दीवारों पर रेखांकन किया जाता है, पेंटिंग की जाती है, उसी तरह का काम किया। मैं खुद एक मध्यवर्गी परिवार से हूं। बचपन में मुझे इस तरह के काम का अनुभव हुआ था। हम जिस मोहल्ले में रहते थे उसमें लोग घरों की दीवारों पर एक लोकदेवी का चित्र बनवाते थे। बचपन में मैं वह चित्र एनेमल पेंट से बनाया करता था। उसी देवी की छवि को मैंने मिक्स मीडिया में पांच साल पहले प्रस्तुत किया था। लोगों को वह पसंद नहीं आया क्योंकि शायद उन्हें लगा होगा कि मैं तो पूरा मंदिर ही घर में ले आया। इसीलिए उसे खरीदने में लोगों ने रुचि नहीं ली होगी। इससे मिलता जुलता अनुभव मुझे "एनीमल एंड वायलेंस' वाले शो के बाद हुआ था जब एक व्यक्ति ने खरीदी हुई पेंटिंग बाद में मुझे वापस भेज दी। पर मुझे लगता है कि उक्त दोनो शो मेरे लिए काफी महत्त्वपूर्ण थे।


 वायलेंस पर तो आपने काफी काम किया है, जैसे "भागलपुर कांड' पर आपने चित्र बनाये थे।

 तब भी यही बात थी कि वायलेंस हमारे आसपास है, हमारे जीवन में है तो उसे क्यों ने पेंटिंग में लाया जाए। मैं अपनी हर प्रदर्शनी का विषय बदल देता हूं क्योंकि एक कलाकार की शैली या विषय में जो नैरंतर्य होता है उसमें मेरा यकीन नहीं है। मैं थियेटर का आदमी भी रहा हूं। मुझे लगता है कि एक अभिनेता के रूप में यदि मुझे एक नाटक में राजा की भूमिका करनी है तो हो सकता है कि दूसरे में नौकर की भूमिका करनी पड़े। एक अभिनेता के रूप में मेरे लिये दोनों भूमिकाएं महत्त्वपूर्ण हैं और मुझे ठीक से उन्हें करना चाहिए। इसीलिए एक पेंटर के रूप में भी मैं हर प्रदर्शनी के लिए नये विषय के रूप में अपनी नयी भूमिका चुनता हूं। कई बार कोई विषय चुनकर काम करता हूं और कई बार काम करते-करते एक थीम बनती चली जाती है। अभी मुंबई में एक शो करके लौटा हूं। वहां से आने के बाद से मैं उस काम से अलग हटकर कुछ करने की सोच रहा हूं। हालांकि मैं इसे कोई बहुत बहादुरी का काम नहीं मानता, पर मेरे दिमाग ही कुछ ऐसा है। 

आपका काम तो खैर लगातार बदलता ही रहा है। आपने एक समय बनारस के घाट बनाये तो दूसरी बार गुलदस्ते। आपने एक बार कहा था कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से आप काफी प्रभावित रहे हैं। इस बारे में कुछ बतायें?

बंगाल स्कूल शुरू से ही मुझे प्रभावित करता रहा है। मुंबई में प्रोग्रेसिव ग्रुप बना था तो उसने बंगाल स्कूल पर अटैक किया था। पर मुझे आज भी लगता है कि बंगाल स्कूल से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, चाहे गुरुदेव हों या रामकिंकर बैज, नंदलाल बसु हों या बिनोद बिहारी मुखर्जी, उनमें बहुत कुछ ऐसा है जो आज भी आपको कला का कोई कोई आधुनिक पक्ष सिखाता है। इसीलिए बंगाल स्कूल मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। जहां तक गुरुदेव की बात है तो उनसे मैंने सीखा कि समकालीन भूदृश्य चित्रण का क्या अर्थ है, वो कैसे हो सकता है। इसी का नतीजा था कि जिस बनारस को पहले रामकुमार और हुसेन जैसे कलाकार चित्रित कर चुके थे, वहां 1980 के दशक में मैं एक जिद के तहत गया और काम किया। एक मध्यवर्ग से आया हुआ आदमी जो अपने आसपास होने वाली हर गतिविधि से जुड़ा रहता है वो प्रतिक्रिया कैसे करेगा, इसी सोच के तहत मैंने बनारस को पेंट किया। मैंने बनारस की आत्मा को, उसके भावों को आगे लाने की कोशिश की थी। मुझे लगता है कि कुछ हद तक वो काफी सजीव और एद्रिय लग रहा था।  इसी तरह फ्लावर वाली श्रृंखला थी जो एक तरह से मेरे निजी अनुभव से जुड़ी हुई थी जो मुझे बनारस में हुआ था। बनारस में मनुष्य और संगीत या प्रार्थना के बाद जो तीसरी चीज सबसे अधिक नजर आती है, वह है फूल; मगर वे इतनी नाटकीय स्थितियों में दिखाई देते हैं कि कभी गंगा पूजन के लिए आये नवदंपति के कंधों पर रखे हुए या पूजा कर लौटते समय उनके शरीर पर होते हैं तो कभी लाल-पीले कपड़े पहने लोग बच्चे का मंुडन कराकर समय हाथों में फूल लिये लौट रहे होते हैं। और उससे कुछ ही दूरी पर मणिकर्णिका घाट पर शवों पर रखे फूल नजर आते हैं। इस तरह मुझे लगता है कि फूलों की यात्रा बड़ी नाटकीय होती है। इसीलिए आप देखेंगे कि मैंने जो फूल बनाये उनमें भी नाटकीयता है, उनमें कहीं उत्सव है तो कहीं अवसाद। कई बार मेरे वे चित्र लोगों की समझ में जाते थे तो कई बार लोग उन्हें देखे बिना ही छोड़ देते थे क्योंकि वह उनको डिस्टर्ब करता था। परंतु इसके पीछे मेरी भावना यह थी कि फूल जैसी साधारण चीज को लेकर भी कितना कुछ किया जा सकता है। अभी भी कई बार इस सीरिज का काम देखता हूं या फूलों को नाटकीय परिस्थितियों में देखता हूं तो बड़ा मन करता है कि उसे पेंट करूं क्योंकि उसमें एक स्तर पर रोमांस भी है, उत्सव भी और कामुकता भी है।

हिंसा को लेकर आपने काफी काम किया है। इधर जीवन और अधिक हिंसक हो गया है, चाहे वह सामाजिक जीवन हो या पारिवारिक जीवन, उसमें एक तरह की आक्रामकता आती जा रही है। क्या आपका इस विषय पर पेंट करने का इरादा है?

नहीं, फिलहाल तो नहीं, पर मेरी हमेशा से इच्छा रही है, हर तरह की हिंसा को पेंट करने की। अभी मैंने जो पिछली श्रृंखला बनायी थी, उसमें मैं रामकृष्ण परमहंस से प्रभावित होकर काम किया था कि हम सिर्फ हिंसी की बात कर-कर के, उसे लगातार दोहरा कर हिंसा ही उत्पन्न कर रहे हैं। मुझे लगता है कि एक अलग धरातल पर हमें सोचना चाहिए कि जो हमारे यहां धार्मिक आस्थाएं हैं वे अलग-अलग हैं और हमें दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करना भी जरूरी है। मेरी दृष्टि में इस क्षेत्र में काम हो सकता है। यही काम करने की मेरी इच्छा भी है क्योंकि आप हिंसा पर काम करके खुद भी हिंसक हो जाते हैं। मेरी दृष्टि में इसका विकल्प यही हो सकता है कि हम हिंसा के विरुद्ध एक-दूसरे की आस्थाओं-प्रतिबद्धताओं के सम्मान के क्षेत्र में भी काम किया जाना चाहिए।  मेरी एक इच्छा यह भी है कि पांच साल पहले रवींद्र भवन में जो मिक्स मीडिया का मेरा शो हुआ था, जिसमें मैंने आधुनिकता के साथ भारतीयता को मिलाया था, उस दिशा में भी काम करूं।

(दिसंबर 2003 को लिया साक्षात्कार )