कला विमर्श एक यात्रा
भारतीय कलाओं पर अब वैचारिक लेखन का दौर बीत चुका है यह मीडिया ने तो मान ही लिया है शायद कलाकारों ने भी इसे चाहे-अनचाहे स्वीकार कर लिया है। विशेषरूप से अपनी भाषाओं में कला लेखन को लेकर उनमें अब पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि भारतीय कला के विकास के साथ-साथ कला को लेकर जिस लोकरूचि के स्थापित होने की बात एक समय की जाती थी वह अब सपना लगने लगी है। पिछले कुछ सालों में जब से कला बाजार की धूम सुनाई देनी बंद हुई है सार्वजनिक कलादीर्घाओं में होने वाली कला प्रदर्शनियों में लोगों का आना कम होता जा रहा है। इसे लेकर कलाकारों में शिकायत तो है परन्तु इस स्थिति को कैसे बदला जाए इसको लेकर उनके पास कोई विचार और पहल नहीं है। समाचार पत्र और पत्रिकाओं में तो खैर पहले की तरह अब कलाओं पर चर्चा होती ही नहीं है उनमें अब प्रदर्शनियों की सूचना तक नहीं दी जाती और दी जाती भी है तो आधी-अधूरी। भारतीय भाषाओं में कला पत्रिकाओं का दायरा भी सिकुडता जा रहा है। ऐसे में कला विमर्श एक कोशिश है संवाद का एक सेतु बनाने की न केवल कलाकारों के बीच बल्कि कला प्रेमियों और कलाबारों के बीच भी। हमारी इस कोशिश में कई कलाकारों की सद्इच्छाएं और सहयोग जुडा हुआ है। कला विमर्श को हम केवल हिन्दी तक ही सीमित रखने की भी कोशिश नहीं करेगे। हम चाहेंगे कि अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में भी कला सम्बन्धी विचारों और सूचनाओं का प्रचार-प्रसार किया जा सके। एक यात्रा है जो आज से शुरू हो रही है। यह यात्रा कहां तक जाएगी कहा नहीं जा सकता पर इतना यकीन है कि हम इसे कलाकारों और कला प्रेमियो के सहयोग से जितना विस्तार देना संभव होगा उतना विस्तार देंगे।
कला विमर्श की शुरूआत हम कर रहे हैं मनजीत बावा को याद करते हुए
जो हमेशा युवा कलाकारों को प्रोत्साहन देते रहे। दुनिया भर में अपनी पहचान बनाने के
बाद भी उनका देशज नजरिया इस बात का प्रमाण है कि हम अपनी जडों को तोड कर आगे नहीं बढ
सकते।
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