सहज अभिनय और चुस्त पटकथा फिल्म की जान
संजय भट्टाचार्य से वेद प्रकाश भारद्वाज की बातचीत
संजय भट्टाचार्य समकालीन भारतीय कला का एक चर्चित नाम है। फोटो रियलिजम उनकी अपनी पहचान है। बंगाल, मुंबई और राजस्थान के भूदृश्यों, पुरानी हवेलियो-मकानों के माध्यम से वह एक अलग यथार्थ सामने लाते हैं। संजय भट्टाचार्य ने सत्यजित राय की फिल्मों से प्रेरित होकर एक पूरी चित्र श्रृंखला भी बनायी है। उन्होंने हिंदी फिल्म "शब्द' में एक दो-चार मिनट का रोल भी किया है। इसके अलावा बचपन में भी उन्होंने कुछ बांग्ला फिल्मों में काम किया है। फिल्मों के बारे में उनकी पसंद-नापसंद बहुत स्पष्ट है। प्रस्तुत है उनसे फिल्मों को लेकर हुई बातचीत के अंश :
आपको किस तरह फिल्में पसंद हैं?
मुझे ऐसी फिल्में अच्छी लगती हैं जिनमें बहुत अधिक तकनीकी चीजें न हों। उसमें एक बहुत अच्छी, कसी हुई कहानी हो जिसे बहुत ही सीधे और सरल तरीके से फिल्माया गया हो। पटकथा बहुत चुस्त होनी चाहिए और उसमें जो पात्र आते हैं, वह ऐसे न हों कि भर्ती के लगें। कहानी को और पात्रों को इस तरह एक सूत्र में बंधा होना चाहिए जैसे शास्त्रीय संगीत में होता है कि आप कोई राग सुनें तो उसमें आपको एक क्रमबद्ध विकास मिलता है। फिल्म में भी ऐसा ही होना चाहिए। कोई चरित्र ऐसा नहीं होना चाहिए जो जबरदस्ती भरा गया लगे।
फिल्म अभिनेताओं में आपको कौन-कौन पसंद रहे हैं?
फिल्म में अभिनय सबसे महत्वपूर्ण होता है। कलाकारों का अभिनय एकदम प्राकृतिक होना चाहिए, उसमें किसी तरह की बनावट या ओवर एÏक्टग नहीं होनी चाहिए। मैं समझता हूं कि हमारी फिल्म इंस्ट्री में सबसे अच्छा अभिनय अशोक कुमार करते थे। लगता ही नहीं था कि वे कैमरे के सामने अभिनय कर रहे हैं, बल्कि ऐसा लगता था जैसे वे किसी से बातचीत कर रहे हैं। एकदम सहज और स्वाभाविक अभिनय था उनका। वे उतना ही और वैसा ही अभिनय करते थे जैसी चरित्र की मांग होती थी। उन्होंने नायक से लेकर चरित्र अभिनेता व खलनायक तक की भूमिकाओं को जीवंत कर दिया था। आज के कई कलाकारों की फिल्में देखता हूँ तो लगता है कि कुछ ही फिल्मों में उन्होंने अच्छा अभिनय किया। शायद इसका कारण कहानी और निर्देशक की कमी है। यदि कहानी अच्छी न हो और निर्देशक सक्षम न हो तो वह अभिनेता-अभिनेत्री से बहुत अच्छा अभिनय नहीं करा पाता। निर्देशन के मामले में सत्यजित राय का जवाब नहीं था। वो किसी को सड़क से पकड़ कर भी ले आते थे तो वो ऐसे एÏक्टग कर जाता था जैसे मंझा हुआ अभिनेता हो। तो फिल्म में अभिनय में निर्देशक की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह एक तरह से फिल्म का पिता होता है और उसी पर यह निर्भर करता है कि फिल्म कैसी बनेगी।
नये अभिनेताओं में मुझे इरफान खान का अभिनय अच्छा लगता है। हासिल और मकबूल में उन्होंने बहुत शानदार काम किया है। आज के जो लोकप्रिय फिल्म कलाकार हैं उनका अभिनय मुझे बहुत प्रभावित नहीं करता। मुख्य अभिनेता-अभिनेत्रियों की बजाय मुझे चरित्र अभिनेता अधिक अच्छे लगते हैं। जैसे अनुपम खेर, ऐके हंगल आदि के अभिनय में जान है। यदि इनके व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर किसी फिल्म में मुख्य भूमिका इनकी रखी जाए तो ये कमाल करत सकते हैं। दरअसल हमारी फिल्म इंडस्ट्री में खालिस अभिनय जैसी चीज का कोई महत्व नजर नहीं आता। अब पंकज कपूर को ही ले लो। वह इतने जबरदस्त अभिनेता हैं पर उनकी प्रतिभा और व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर बहुत कम फिल्म बनी हैं। हमारे यहां तो पहले हीरो-हिरोइन को ध्यान में रखकर काम शुरू किया जाता है, चरित्र अभिनेताओं को तो बाद में चुना जाता है।
अब कॉमेडियन में केस्टो मुखर्जी को ही ले लो। जब वह कुछ बोल भी नहीं रहे होते थे तब भी अपना कमला दिखा जाते थे। "बांबे टू गोवा' फिल्म में तो वे शुरू से आखिर तक सोते ही रहे परंतु फिल्म के अन्य कॉमेडियन पर फिर भी भारी पड़े। आपको कौनसी फिल्में पसंद रही हैं? पुरानी फिल्मो में मुझे ज्यादातर सत्यजित राय की फिल्में पसंद रही हैं। उनकी फिल्मों को लेकर मैंने एक चित्र श्रृंखला भी बनायी है जिसकी 1999-2000 में कोलकाता में प्रदर्शनी हुई थी। उसमें मैंने मूल फिल्म की कथा को लेकर अपनी फैंटेसी के आधार पर कुछ पेंटिग बनायी थीं। इनमें पाथेर पांचाली, शतरंज के खिलाड़ी, जलसाघर, चारुलता आदि शामिल हैं। आमतौर पर हिंदी फिल्मों में कोई विशेष प्रभाव लाने के लिए निर्देशक जहां लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करते हैं वही बात सत्यजित राय बहुत कम खर्च में करते थे। हिंदी फिल्मों में अशोक कुमार की फिल्में तो पसंद रही ही हैं, अभिताभ बच्चन की भी कई फिल्में मुझे पसंद रही हैं, जैसे जंजीर, दीवार आदि। ये व्यावसायिक फिल्में होने के बाद भी इतनी बेहतरीन हैं कि लोगों को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। सत्यजित राय और अमिताभ बच्चन की फिल्मों एक बड़ा अंतर यह है कि सत्यजित राय की फिल्मे एक तरह से पूरी टीम की होती थीं जबकि अमिताभ की फिल्मों वनमैन शो होती हैं। यदि उनमें से अमिताभ को निकाल दिया जाए तो फिल्म धराशायी हो जाएगी।
फिल्म अभिनेत्रियों में आपको किनका अभिनय प्रभावित करता है?
फिल्म अभिनेत्रियों में मुझे वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर, जया भादुड़ी आदि का काम बहुत अच्छा लगता है। बंगाल में माधवी मुखर्जी का काम मुझे पसंद रहा है। हिंदी में इधर हाल की अभिनेत्रियों में वो बात नजर नहीं आती कि उनका उल्लेख किया जाए। अब तो फिल्मों का पूरा पैटर्न ही बदल चुका है। अब तो फिल्मों में एक्शन और डांस पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। भव्यता को प्रमुखता दी जा रही है। अलबत्ता पिछले दिनों बनी फिल्म "परिणिता' की नायिका विद्या बालन का अभिनय अच्छा है। इसके अलावा आमिर खान के साथ "लगान' में ग्रेसी सिंह ने काफी अच्छा काम किया था और कई बार तो वह आमिर खान से आगे बढ़ती नजर आती थी परंतु उसके बाद उसकी एÏक्टग का कमाल देखने को नहीं मिला। शायद इसका कारण यह भी है कि आज फिल्मों में अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के ग्लैमर पर अधिक ध्यान दिया जाता है, उनकी अभिनय क्षमता को कोई महत्व नहीं देता।
संजय भट्टाचार्य से वेद प्रकाश भारद्वाज की बातचीत
संजय भट्टाचार्य समकालीन भारतीय कला का एक चर्चित नाम है। फोटो रियलिजम उनकी अपनी पहचान है। बंगाल, मुंबई और राजस्थान के भूदृश्यों, पुरानी हवेलियो-मकानों के माध्यम से वह एक अलग यथार्थ सामने लाते हैं। संजय भट्टाचार्य ने सत्यजित राय की फिल्मों से प्रेरित होकर एक पूरी चित्र श्रृंखला भी बनायी है। उन्होंने हिंदी फिल्म "शब्द' में एक दो-चार मिनट का रोल भी किया है। इसके अलावा बचपन में भी उन्होंने कुछ बांग्ला फिल्मों में काम किया है। फिल्मों के बारे में उनकी पसंद-नापसंद बहुत स्पष्ट है। प्रस्तुत है उनसे फिल्मों को लेकर हुई बातचीत के अंश :
आपको किस तरह फिल्में पसंद हैं?
मुझे ऐसी फिल्में अच्छी लगती हैं जिनमें बहुत अधिक तकनीकी चीजें न हों। उसमें एक बहुत अच्छी, कसी हुई कहानी हो जिसे बहुत ही सीधे और सरल तरीके से फिल्माया गया हो। पटकथा बहुत चुस्त होनी चाहिए और उसमें जो पात्र आते हैं, वह ऐसे न हों कि भर्ती के लगें। कहानी को और पात्रों को इस तरह एक सूत्र में बंधा होना चाहिए जैसे शास्त्रीय संगीत में होता है कि आप कोई राग सुनें तो उसमें आपको एक क्रमबद्ध विकास मिलता है। फिल्म में भी ऐसा ही होना चाहिए। कोई चरित्र ऐसा नहीं होना चाहिए जो जबरदस्ती भरा गया लगे।
फिल्म अभिनेताओं में आपको कौन-कौन पसंद रहे हैं?
फिल्म में अभिनय सबसे महत्वपूर्ण होता है। कलाकारों का अभिनय एकदम प्राकृतिक होना चाहिए, उसमें किसी तरह की बनावट या ओवर एÏक्टग नहीं होनी चाहिए। मैं समझता हूं कि हमारी फिल्म इंस्ट्री में सबसे अच्छा अभिनय अशोक कुमार करते थे। लगता ही नहीं था कि वे कैमरे के सामने अभिनय कर रहे हैं, बल्कि ऐसा लगता था जैसे वे किसी से बातचीत कर रहे हैं। एकदम सहज और स्वाभाविक अभिनय था उनका। वे उतना ही और वैसा ही अभिनय करते थे जैसी चरित्र की मांग होती थी। उन्होंने नायक से लेकर चरित्र अभिनेता व खलनायक तक की भूमिकाओं को जीवंत कर दिया था। आज के कई कलाकारों की फिल्में देखता हूँ तो लगता है कि कुछ ही फिल्मों में उन्होंने अच्छा अभिनय किया। शायद इसका कारण कहानी और निर्देशक की कमी है। यदि कहानी अच्छी न हो और निर्देशक सक्षम न हो तो वह अभिनेता-अभिनेत्री से बहुत अच्छा अभिनय नहीं करा पाता। निर्देशन के मामले में सत्यजित राय का जवाब नहीं था। वो किसी को सड़क से पकड़ कर भी ले आते थे तो वो ऐसे एÏक्टग कर जाता था जैसे मंझा हुआ अभिनेता हो। तो फिल्म में अभिनय में निर्देशक की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह एक तरह से फिल्म का पिता होता है और उसी पर यह निर्भर करता है कि फिल्म कैसी बनेगी।
नये अभिनेताओं में मुझे इरफान खान का अभिनय अच्छा लगता है। हासिल और मकबूल में उन्होंने बहुत शानदार काम किया है। आज के जो लोकप्रिय फिल्म कलाकार हैं उनका अभिनय मुझे बहुत प्रभावित नहीं करता। मुख्य अभिनेता-अभिनेत्रियों की बजाय मुझे चरित्र अभिनेता अधिक अच्छे लगते हैं। जैसे अनुपम खेर, ऐके हंगल आदि के अभिनय में जान है। यदि इनके व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर किसी फिल्म में मुख्य भूमिका इनकी रखी जाए तो ये कमाल करत सकते हैं। दरअसल हमारी फिल्म इंडस्ट्री में खालिस अभिनय जैसी चीज का कोई महत्व नजर नहीं आता। अब पंकज कपूर को ही ले लो। वह इतने जबरदस्त अभिनेता हैं पर उनकी प्रतिभा और व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर बहुत कम फिल्म बनी हैं। हमारे यहां तो पहले हीरो-हिरोइन को ध्यान में रखकर काम शुरू किया जाता है, चरित्र अभिनेताओं को तो बाद में चुना जाता है।
अब कॉमेडियन में केस्टो मुखर्जी को ही ले लो। जब वह कुछ बोल भी नहीं रहे होते थे तब भी अपना कमला दिखा जाते थे। "बांबे टू गोवा' फिल्म में तो वे शुरू से आखिर तक सोते ही रहे परंतु फिल्म के अन्य कॉमेडियन पर फिर भी भारी पड़े। आपको कौनसी फिल्में पसंद रही हैं? पुरानी फिल्मो में मुझे ज्यादातर सत्यजित राय की फिल्में पसंद रही हैं। उनकी फिल्मों को लेकर मैंने एक चित्र श्रृंखला भी बनायी है जिसकी 1999-2000 में कोलकाता में प्रदर्शनी हुई थी। उसमें मैंने मूल फिल्म की कथा को लेकर अपनी फैंटेसी के आधार पर कुछ पेंटिग बनायी थीं। इनमें पाथेर पांचाली, शतरंज के खिलाड़ी, जलसाघर, चारुलता आदि शामिल हैं। आमतौर पर हिंदी फिल्मों में कोई विशेष प्रभाव लाने के लिए निर्देशक जहां लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करते हैं वही बात सत्यजित राय बहुत कम खर्च में करते थे। हिंदी फिल्मों में अशोक कुमार की फिल्में तो पसंद रही ही हैं, अभिताभ बच्चन की भी कई फिल्में मुझे पसंद रही हैं, जैसे जंजीर, दीवार आदि। ये व्यावसायिक फिल्में होने के बाद भी इतनी बेहतरीन हैं कि लोगों को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। सत्यजित राय और अमिताभ बच्चन की फिल्मों एक बड़ा अंतर यह है कि सत्यजित राय की फिल्मे एक तरह से पूरी टीम की होती थीं जबकि अमिताभ की फिल्मों वनमैन शो होती हैं। यदि उनमें से अमिताभ को निकाल दिया जाए तो फिल्म धराशायी हो जाएगी।
फिल्म अभिनेत्रियों में आपको किनका अभिनय प्रभावित करता है?
फिल्म अभिनेत्रियों में मुझे वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर, जया भादुड़ी आदि का काम बहुत अच्छा लगता है। बंगाल में माधवी मुखर्जी का काम मुझे पसंद रहा है। हिंदी में इधर हाल की अभिनेत्रियों में वो बात नजर नहीं आती कि उनका उल्लेख किया जाए। अब तो फिल्मों का पूरा पैटर्न ही बदल चुका है। अब तो फिल्मों में एक्शन और डांस पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। भव्यता को प्रमुखता दी जा रही है। अलबत्ता पिछले दिनों बनी फिल्म "परिणिता' की नायिका विद्या बालन का अभिनय अच्छा है। इसके अलावा आमिर खान के साथ "लगान' में ग्रेसी सिंह ने काफी अच्छा काम किया था और कई बार तो वह आमिर खान से आगे बढ़ती नजर आती थी परंतु उसके बाद उसकी एÏक्टग का कमाल देखने को नहीं मिला। शायद इसका कारण यह भी है कि आज फिल्मों में अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के ग्लैमर पर अधिक ध्यान दिया जाता है, उनकी अभिनय क्षमता को कोई महत्व नहीं देता।
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