कला विमर्श एक मंच है कलाओं और विचारों का। इस मंच से हम हिन्दी और अंग्रेजी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं में भी सामग्री देने का प्रयास करेंगे। सम्पादक : वेद प्रकाश भारद्वाज Kala Vimarsha is a platform for art and thought. we try to explore it in different Indian languages. All artists and writers are invited to share informations and thoughts. please mail all material text and images. my email ID is bhardwajvedprakash@gmail.com Editor : Ved Prakash Bhardwaj
Saturday, 10 October 2015
Friday, 9 October 2015
कला और कलाकार: लोक व आदिवासी कला के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न
कला और कलाकार
लोक व आदिवासी कला के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न
वेद प्रकाश भारद्वाज
पिछले दिनों एक मित्र के साथ कला को लेकर चर्चा हो रही थी। उसका एक प्रश्न था कि क्या गणेश उत्सव, नवरात्री उत्सव के लिए मूर्तियां बनाने वाले कलाकार नहीं है और दशहरा पर जलाने के लिए जो रावण के पुतले बनाये जाते हैं वो कला नहीं है? इन प्रश्नों के साथ फिर यह प्रश्न भी आता है कि आखिर हम मधुबनी, वरली या मिनिएचर पेंटिंग करने वालों को कलाकार क्यों स्वीकार नहीं करते हैं? यहाँ कलाकार से आशय आधुनिक कला करने वाले कलाकारों से था। इस तरह के प्रश्न अक्सर मेरे सामने आते रहे हैं और हर बार उनका सन्तोषजनक जवाब देना आसान नहीं रहा। दरअसल हम जो खुद को फ़ाईन आर्ट करने वाले कलाकार मानते हैं इस तरह के प्रश्नों से अक्सर दो-चार होते रहते हैं। हम लोक कलाकारों को या मूर्तियां बनाने वालों को अपनी तरह का कलाकार स्वीकार नहीं कर पाते हैं। एक जवाब तो यही होता है कि उनका कलाकर्म एक तरह का उत्पादन होता है जो सीधे सीधे किसी खास उपयोग के लिए बनाया जाता है। दूसरी बात यह सामने आती है कि लोक कला करने वालों के यहाँ एक ही छवि की कई अनुकृतियाँ बनाने का चलन है। इस हिसाब से देखें तो फिर छापा कलाकार भी संदिग्ध ठहरा दिए जाएंगे जबकि उन्हें हम समकालीन या ललित कला में शामिल करते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व की एक बात याद आती है। मैं पॉटरी कलाकार देवी प्रसाद का साक्षात्कार ले रहा था। पॉटरी को लेकर उन्होंने कई प्रयोग किये थे। उन्होंने इस बात पर बाल दिया था कि पॉटरी के साथ उपयोगिता वाला तत्व अनिवार्यतः जुड़ा होना चाहिए। इधर जब कई कलाकार मित्र पेंटिंग ना बिकने का दुःख प्रकट करते हैं तब मेरा कहना होता है कि हम जो कला कर रहे हैं, चाहे वो पेंटिंग हो या शिल्प, वह दैनिक जीवन की उपयोगी वस्तुओं में नहीं आते और इसीलिये सभी लोग उसे खरीदते नहीं हैं। पर मुझे खुद अपनी बात कई बार अर्थहीन लगती है जब मैं पाता हूँ कि लोक कलाकारों या आदिवासी कलाकारों की रचनाएँ लोग अधिक खरीदते हैं। इसके पीछे एक बात उसका मूल्य कम होना तो है ही साथ ही यह भी कि लोक कलाकारों कि रचनाओं से लोग खुद को सहज ही जोड़ लेते हैं।
यहाँ एक नया प्रश्न सामने आता है कि क्या कारण है कि लोक कलाकारों व आदिवासी कलाकारों को ललित कलाकरों या कहें कि समकालीन कलाकारों में शामिल नहीं नहीं किया जाता। इसका एक कारण जो मुझे समझ में आता है वो यह कि हम समकालीन कलाकार ही उन्हें अपनी जमात में शामिल नहीं करना चाहते क्योंकि हम मान कर चलते हैं कि वे हमसे कमतर हैं। दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि जिस तरह से आधुनिक कला का विकास हुआ उस तरह का विकास लोक व आदिवासी कलाओं में देखने को नहीं मिलता। आज भले ही कुछ आदिवासी व लोक कलाकार एक्रेलिक व ऑयल रंगों से कैनवास पर चित्र बनाने लगे हैं परन्तु उनके विषय वही पुराने होते हैं, उनमें समकालीन समय का चित्रण नहीं मिलता, साथ ही उनमें नए प्रयोगों का भी अभाव है।
ऐसा नहीं है कि लोक व आदिवासी कलाकार आधुनिक समय और उसमें हो रहे परिवर्तनों से एकदम अनजान हैं। उनमें शिक्षा का प्रसार भी हुआ है और वे आधुनिक तकनीक के उपभोक्ता भी हैं फिर भी वे समकालीन जीवन का चित्रण नहीं करते हैं तो इसका कारण कहीं न कहीं उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा का अभाव है। हमारी कला शिक्षा में उनके लिए कोई जगह नहीं है। एक बात यह भी है कि लोक व आदिवासी कलाकारों पर इस बात का दबाव बनाया जाता है कि वे अपनी पहचान बनाये रखने के लिए जैसे हैं वैसे ही रहें और अपनी कला को भी वैसा ही रखें। यह एक ऐसा छल है जो उनके साथ जीवन के हर पक्ष में किया जाता रहा है जो उन्हें आधुनिक समाज ??और कला से दूर रखता है। केंद्र व राज्य सरकारों ने लोक व आदिवासी कलाकारों के लिए संस्थाएं तो बनायीं व उनके लिए धन भी प्रदान किया पर उन संस्थानों की कमान ऐसे हाथों में रहती है जिनका हित उनकी कला को जस का तस रखने में होता है।
लोक व आदिवासी कला के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न
वेद प्रकाश भारद्वाज
पिछले दिनों एक मित्र के साथ कला को लेकर चर्चा हो रही थी। उसका एक प्रश्न था कि क्या गणेश उत्सव, नवरात्री उत्सव के लिए मूर्तियां बनाने वाले कलाकार नहीं है और दशहरा पर जलाने के लिए जो रावण के पुतले बनाये जाते हैं वो कला नहीं है? इन प्रश्नों के साथ फिर यह प्रश्न भी आता है कि आखिर हम मधुबनी, वरली या मिनिएचर पेंटिंग करने वालों को कलाकार क्यों स्वीकार नहीं करते हैं? यहाँ कलाकार से आशय आधुनिक कला करने वाले कलाकारों से था। इस तरह के प्रश्न अक्सर मेरे सामने आते रहे हैं और हर बार उनका सन्तोषजनक जवाब देना आसान नहीं रहा। दरअसल हम जो खुद को फ़ाईन आर्ट करने वाले कलाकार मानते हैं इस तरह के प्रश्नों से अक्सर दो-चार होते रहते हैं। हम लोक कलाकारों को या मूर्तियां बनाने वालों को अपनी तरह का कलाकार स्वीकार नहीं कर पाते हैं। एक जवाब तो यही होता है कि उनका कलाकर्म एक तरह का उत्पादन होता है जो सीधे सीधे किसी खास उपयोग के लिए बनाया जाता है। दूसरी बात यह सामने आती है कि लोक कला करने वालों के यहाँ एक ही छवि की कई अनुकृतियाँ बनाने का चलन है। इस हिसाब से देखें तो फिर छापा कलाकार भी संदिग्ध ठहरा दिए जाएंगे जबकि उन्हें हम समकालीन या ललित कला में शामिल करते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व की एक बात याद आती है। मैं पॉटरी कलाकार देवी प्रसाद का साक्षात्कार ले रहा था। पॉटरी को लेकर उन्होंने कई प्रयोग किये थे। उन्होंने इस बात पर बाल दिया था कि पॉटरी के साथ उपयोगिता वाला तत्व अनिवार्यतः जुड़ा होना चाहिए। इधर जब कई कलाकार मित्र पेंटिंग ना बिकने का दुःख प्रकट करते हैं तब मेरा कहना होता है कि हम जो कला कर रहे हैं, चाहे वो पेंटिंग हो या शिल्प, वह दैनिक जीवन की उपयोगी वस्तुओं में नहीं आते और इसीलिये सभी लोग उसे खरीदते नहीं हैं। पर मुझे खुद अपनी बात कई बार अर्थहीन लगती है जब मैं पाता हूँ कि लोक कलाकारों या आदिवासी कलाकारों की रचनाएँ लोग अधिक खरीदते हैं। इसके पीछे एक बात उसका मूल्य कम होना तो है ही साथ ही यह भी कि लोक कलाकारों कि रचनाओं से लोग खुद को सहज ही जोड़ लेते हैं।
यहाँ एक नया प्रश्न सामने आता है कि क्या कारण है कि लोक कलाकारों व आदिवासी कलाकारों को ललित कलाकरों या कहें कि समकालीन कलाकारों में शामिल नहीं नहीं किया जाता। इसका एक कारण जो मुझे समझ में आता है वो यह कि हम समकालीन कलाकार ही उन्हें अपनी जमात में शामिल नहीं करना चाहते क्योंकि हम मान कर चलते हैं कि वे हमसे कमतर हैं। दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि जिस तरह से आधुनिक कला का विकास हुआ उस तरह का विकास लोक व आदिवासी कलाओं में देखने को नहीं मिलता। आज भले ही कुछ आदिवासी व लोक कलाकार एक्रेलिक व ऑयल रंगों से कैनवास पर चित्र बनाने लगे हैं परन्तु उनके विषय वही पुराने होते हैं, उनमें समकालीन समय का चित्रण नहीं मिलता, साथ ही उनमें नए प्रयोगों का भी अभाव है।
ऐसा नहीं है कि लोक व आदिवासी कलाकार आधुनिक समय और उसमें हो रहे परिवर्तनों से एकदम अनजान हैं। उनमें शिक्षा का प्रसार भी हुआ है और वे आधुनिक तकनीक के उपभोक्ता भी हैं फिर भी वे समकालीन जीवन का चित्रण नहीं करते हैं तो इसका कारण कहीं न कहीं उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा का अभाव है। हमारी कला शिक्षा में उनके लिए कोई जगह नहीं है। एक बात यह भी है कि लोक व आदिवासी कलाकारों पर इस बात का दबाव बनाया जाता है कि वे अपनी पहचान बनाये रखने के लिए जैसे हैं वैसे ही रहें और अपनी कला को भी वैसा ही रखें। यह एक ऐसा छल है जो उनके साथ जीवन के हर पक्ष में किया जाता रहा है जो उन्हें आधुनिक समाज ??और कला से दूर रखता है। केंद्र व राज्य सरकारों ने लोक व आदिवासी कलाकारों के लिए संस्थाएं तो बनायीं व उनके लिए धन भी प्रदान किया पर उन संस्थानों की कमान ऐसे हाथों में रहती है जिनका हित उनकी कला को जस का तस रखने में होता है।
Subscribe to:
Posts (Atom)