Friday, 12 July 2024

अशोक भौमिकः श्वेत-श्याम की स्वर्णिम आभा : डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज

क्या काले रंग से स्वर्णिम आभा प्राप्त की जा सकती है? ज्यादातर लोग कहेंगे- नहीं, पर एक कलाकार के लिए यह असंभव स्थिति नहीं है। एक कलाकार जो पिछले 50 वर्ष से लगातार काली स्याही से काम कर रहे हैं, कागज के साथ ही कैनवास पर रंग का प्रयोग करते हुए भी जिन्होंने काली स्याही को ही मुख्य बनाए रखा, उसके बारे में यह कहना गलत नहीं होगा कि उसने काले रंग को भी सुनहरी इबारतों में बदल दिया है, ऐसी सुनहरी इबारतें जिनमें हमारे समय की सबसे अधिक अंधेरी सच्चाइयां उपस्थित हैं। यह कलाकार हैं अशोक भौमिक जिन्होंने इस बात को प्रमाणित किया है कि कला का सौंदर्य से अधिक यथार्थ से रिश्ता होना चाहिए। अशोक भौमिक अपनी अलग शैली और प्रस्तुति के साथ ही सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने अपनी कला में निजी अनुभवों को आधार बनाते हुए ऐसी छवियों को रचा है जो निजी होकर भी सार्वजनिक जीवन के यथार्थ को व्यक्त करती हैं। वैसे भी कला का अर्थ ही निजी का सार्वजनिक हो जाना है। जब तक कलाकार रचता है, वह उसकी निजी क्रिया है परंतु जैसे ही वह उसे किस भी रूप में प्रदर्शित करता है, वह सार्वजनिक जीवन का हिस्सा हो जाती है। अशोक भौमिक ने 1974 में पहली बार एकल प्रदर्शनी कानपुर में की थी। उनकी कला यात्रा के 50 वर्ष पूर्ण होने पर पिछले दिनों लखनऊ की कला स्रोत आर्ट गैलरी में उनके चुनिंदा कामों की एक प्रदर्शनी आयोजित की गयी। किसी एक प्रदर्शनी में अशोकजी के रचना संसार को बांध पाना मुश्किल है फिर भी प्रदर्शनी के क्यूरेटर राजन श्रीपद फुलारी ने उनकी लोकप्रिय श्रृंखलाओं के चित्रों का चयन कर एक बेहतर प्रदर्शनी प्रस्तुत की।
अशोक भौमिक का रचना संसार इतना विशद है कि उसे किसी एक लेख या प्रदर्शनी में समाहित कर पाना किसी के लिए भी संभव नहीं होगा। उनकी तकनीक की बात करें तो वह एक पूरी पुस्तक का विषय है। उनके विषयों की बाद करें तो प्रत्येक श्रृंखला पर एक पुस्तक तैयार की जा सकती है। वैसे यदि यह कहा जाए कि उनकी कला में विचार या विषय का महत्व इतना अधिक है कि वहां तकनीक का पक्ष अक्सर उपेक्षित ही रह जाता है। राजशाही, पूंजीवाद, मजदूर, पक्षी, राजनीति, सत्ता संघर्ष और इन सबके साथ आम आदमी की स्थिति को लेकर उन्होंने अनेक श्रृंखलाओं में काम किया है। जिस दौर में कलाकार कला में सौंदर्य की उपासना कर रहे थे, अशोकजी ने कला को आम आदमी और समकालीन यथार्थ की अभिव्यक्ति बनाया। यह उनके आंतरिक व्यक्तित्व का प्रतिबिंब है। कला अंदर से बाहर की यात्रा करती है। एक कलाकार अंतरमन में जो विचार और अनुभव आकार लेते हैं, उन्हें अपने समय को व्यक्त करने के लिए आधार बनाता है। कोई भी विचार अनुभव शून्य नहीं होता। अशोकजी ने अपने जीवन के आरंभिक दिनों में कानपुर में मजदूरों, श्रमिकों, गरीबों के जीवन को निकट से देखा है। इसी समय उनका झुकाव वामपंथी विचारधारा की तरफ हुआ जिसने उन्हें जीवन को देखने और समझने की आलोचनात्मक दृष्टि दी। यहीं से उनके अंदर एक कलाकार के साथ ही आलोचक का भी जन्म हुआ जो चीजों और स्थितियों को उनके बाह्य समीकरण और आंतरिक संरचनाओं के संदर्भ में देखता है। इससे उनकी कला कल्पना को यथार्थ की अभिव्यक्ति बनाने में सफल हुई।
भारतीय संस्कृति में कला व्यावहारिक जीवन से निसृत रही है। समस्त लोक और आदिवासी कलाएं जीवन के व्यावहारिक पक्षों से निर्देशित रही हैं। इसीलिए उनमें हम व्यक्त और अव्यक्त, दोनों तरह की अभिव्यक्तियां पाते हैं। जो साकार है वह व्यक्त है पर जो निराकार है या अदृश्य है, वह व्यक्त होते हुए भी अव्यक्त है। एक आकार के साथ अपनी बात को स्पष्ट कह देना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है बिना किसी परिचित आकार के उस बात को कहने की कोशिश जो पूरी तरह खुल नहीं पायी है। यही कला की अव्यक्त स्थिति है जिसे अमूर्तन कहा जाता है। लोक कलाओं में इस व्यक्त और अव्यक्त का प्रदर्शन सामान्यतः अलग-अलग ही दिखाई देता है पर आधुनिक कला में कई कलाकारों ने दोनों को इस कुशलता से संयोजित किया है कि देखते ही बनता है। अशोक भौमिक की कला में यह गुण दिखाई देता है। वह अपनी चित्र रचना विधि में मूर्त और अमूर्त दोनों प्रविधियों का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। उनके यहां जो मानवीय व दूसरे रूप हैं वह संरचनात्मक स्तर पर अमूर्तन का प्रभाव लिए हुए हैं। इससे उनके चित्रों का वैचारिक पक्ष अधिक प्रबल हो जाता है और रूप वहां केवल विचार का वाहक बन जाता है। यही उनकी कला की सबसे बड़ी ताकत है। समकालीन जीवन की विभिन्न स्थितियो- सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि को उन्होंने आलोचनात्मक दृष्टि से रचा है। इस रचाव में एक विशेष बात यह है कि उन्होंने अपनी कला को आलोचनात्मक तो बनाया परंतु उसे कभी नकारात्मक नहीं होने दिया। उनकी कला में जो जीवन स्थितियां, पूर्ण या आंशिक रूप में, व्यक्त हुई हैं वह जीवन के होने के महत्व और उसके संघर्ष को व्यक्त करती हैं। इस संघर्ष में मनुष्य पराजित होता भले ही दिखाई दे पर निरुत्साहित या निरुपाय नहीं है। उसका संघर्ष लगातार चलता रहता है। ऐसा इसलिए भी है कि अशोक भौमिक अपनी कला को दिवास्वप्न बनने से बचाते हुए उसे यथार्थ के निकट रखना पसंद करते हैं।
अंधकार और प्रकाश, दोनों ही यथार्थ है और दोनों की उपस्थिति ही जीवन को संभव करती है। एक कलाकार अपनी कला में जीवन के अंधकार और प्रकाश को अभिव्यक्त करता है। कभी किसी कृति में अंधकार अधिक होता है तो किसी में प्रकाश। अनेक कलाकारों ने जीवनभर प्रकाश की रचना की है। ऐसे कलाकारों का कला दर्शन है कि कला का उद्देश्य लोगों को सुखद अनुभूति देना है। इस तरह के कलाकारों ने प्रकृति चित्रण और भूदृश्य चित्रण में सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर दिया। अनेक कलाकारों ने मानव चित्रण में प्रकाश यानी सकारात्मक चित्रण को, जीवन के सुंदरतम पक्ष के चित्रण को ही अपना अंतिम ध्येय बनाकर काम किया। इस तरह के कलाकारों की रचनात्मक क्षमता और उनके महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। सुंदरता के सब खरीददार हैं, फूल हर किसी को चाहिए कांटे कोई नहीं चाहता। सबको जीवन में हर प्रकार, का हर स्तर का प्रकाश चाहिए। लेकिन नींद के लिए रात का अंधकार चाहिए, नीरवता चाहिए। यदि अंधेरा नहीं होगा तो प्रकाश का अस्तित्व भी न पहचाना जाएगा। इसीलिए ऐसे कलाकारों का अलग महत्व है जो अपनी कला के माध्यम से जीवन में अंधकार और प्रकाश, दोनों की उपस्थिति से जीवन में नए अर्थ की संभावना को दिखाते हैं। अशोक भौमिक की कला ऐसी ही कला है। यह काम वह विषय और संरचना, दोनों के स्तर पर करते हैं। अपनी क्रास हैच (जाली) शैली में वह चित्र में हैच की सघनता और क्षीणता से अंधकार और प्रकाश की अनुभूति कराते हैं।
अशोक भौमिक की कला रेखाओं की यात्रा कही जा सकती है। प्रत्येक लाइन की अपनी यात्रा होती है। हर एक लाइन अपने साथ विचार और भावनाओं से भरी अनेक कहानियां लेकर चलती है। अकेली लाइन भी कुछ कहती है पर जब अनेक लाइनें आपस में मिलकर एक सामाजिकता स्थापित करती हैं तो वह बहुत कुछ कहती हैं। अशोक भौमिक की लाइनें कुछ ऐसी ही हैं। काली स्याही से हल्की गहरी लाइन के साथ ही उन्हें आपस में जोड़ते हुए वह जिस प्रकार सतह को सघन और भारहीन हिस्सों में विभाजित करते हैं, वह सामाजिक संरचना के उस रूप को सामने लाता है, जिसमें असमानता, अन्याय, विभेद, एकाधिकारवादी सत्ताएं (राजनीतिक और सामाजिक दोनों) प्रबल हैं। अशोकजी इन स्थितियों के विरोध में ऐसे चित्रों की रचना करते हैं जिसमें शोषित-पीड़ित वर्ग लगातार एक चुनौती की तरह खड़ा दिखाई देता है। अँधेरे और उजाले के असंतुलित विभाजन की सामाजिक स्थिति अशोकजी के यहां प्रखर विचार की तरह सक्रिय दिखाई देती है। अपने चित्रांकन में आकृतियों को सही परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए वह रेखाओँ के परस्पर संबंध में गहनता और न्यूनता का प्रयोग करते हैं।
अंधकार और प्रकाश, दोनों ही यथार्थ है और दोनों की उपस्थिति ही जीवन को संभव करती है। एक कलाकार अपनी कला में जीवन के अंधकार और प्रकाश को अभिव्यक्त करता है। कभी किसी कृति में अंधकार अधिक होता है तो किसी में प्रकाश। अनेक कलाकारों ने जीवनभर प्रकाश की रचना की है। ऐसे कलाकारों का कला दर्शन है कि कला का उद्देश्य लोगों को सुखद अनुभूति देना है। इस तरह के कलाकारों ने प्रकृति चित्रण और भूदृश्य चित्रण में सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर दिया। अनेक कलाकारों ने मानव चित्रण में प्रकाश यानी सकारात्मक चित्रण को, जीवन के सुंदरतम पक्ष के चित्रण को ही अपना अंतिम ध्येय बनाकर काम किया। इस तरह के कलाकारों की रचनात्मक क्षमता और उनके महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। सुंदरता के सब खरीददार हैं, फूल हर किसी को चाहिए कांटे कोई नहीं चाहता। सबको जीवन में हर प्रकार, का हर स्तर का प्रकाश चाहिए। लेकिन नींद के लिए रात का अंधकार चाहिए, नीरवता चाहिए। यदि अंधेरा नहीं होगा तो प्रकाश का अस्तित्व भी न पहचाना जाएगा। इसीलिए ऐसे कलाकारों का अलग महत्व है जो अपनी कला के माध्यम से जीवन में अंधकार और प्रकाश, दोनों की उपस्थिति से जीवन में नए अर्थ की संभावना को दिखाते हैं। अशोक भौमिक की कला ऐसी ही कला है। यह काम वह विषय और संरचना, दोनों के स्तर पर करते हैं। अपनी क्रास हैच (जाली) शैली में वह चित्र में हैच की सघनता और क्षीणता से अंधकार और प्रकाश की अनुभूति कराते हैं। क्रास हैच आज अशोकजी की पहचान बन चुकी है। शुरु में उन्होंने श्वेत-श्याम चित्रों की ही रचना की। बाद में जब उन्होंने कागज और कैनवास पर रंगों का भी प्रयोग शुरु किया तो उसमें भी काली स्याही से क्रास हैच को ही प्रमुख रखा। उन्होंने कई चित्रों में आंशिक रूप से लोक कलाओं की चित्र संरचना को भी अपनाया, विशेषरूप से लोक जीवन के चित्रण के लिए। उनके रचना संसार में घनवादी शैली की आंशिक उपस्थिति भी दिखाई देती है। मानव शरीर के अकादमिक सिद्धांतों को एक किनारे करते हुए उन्होंने जीवन की तनावपूर्ण स्थितियों को व्यक्त करने के लिए शारीरिक संरचना को अर्धअमूर्त शैली में रचा है। डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज

2 comments:

  1. "अँधेरे और उजाले के असंतुलित विभाजन की सामाजिक स्थिति अशोकजी के यहां प्रखर विचार की तरह सक्रिय दिखाई देती है। अपने चित्रांकन में आकृतियों को सही परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए वह रेखाओँ के परस्पर संबंध में गहनता और न्यूनता का प्रयोग करते हैं।"- बहुत सटीक व्याख्याI

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  2. श्वेत-श्याम के प्रतीक अशोक जी की भावपूर्णआकृतियां जीवन के यथार्थ में भी सौंदर्यबोध ढूंढ लेती हैं

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