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Thursday, 21 November 2024
कला से जीवन को देखना : डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज
ग्वालियर के छह कलाकारों की प्रदर्शनी ‘हेमंतिका’ 15 से 17 नवंबर 2024 तक तानसेन कला वीथिका, ग्वालियर में आयोजित की गयी। ये कलाकार हैं आलोक शर्मा, बलवंत भदौरिया, हरिकृष्ण कदम, नीना खरे, प्रेमकुमार सिकरवार व संजय धवले। इन कलाकारों के काम में आकारों और निराकारों की उपस्थिति एक अलग वातावरण रचती हैं जो कला के माध्यम से जीवन को देखने का एक नया पहलु सामने रखती हैं।
इन कलाकारों में से अधिकांश ने ग्वालियर के शासकीय ललित कला संस्थान से कला की शिक्षा हासिल की है और अपनी कला से राष्ट्रीय कला परिदृश्य पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। वैसे भी ग्वालियर में कला का पुराना इतिहास है। ग्वालियर को संगीत की राजधानी तो कहा ही जाता है। ग्वालियर ने देश को रुद्र हंजी, डीडी देवलालीकर, एलएस राजपूत, विश्वमित्र वासवानी एंव मदन भटनागर जैसे कलाकार दिये हैं। ऐसे कला समृद्ध शहर में शहर के ही छह कलाकारों की प्रदर्शनी कला प्रेमियों के लिए एक सौगात रही। प्रदर्शनी के क्यूरेटर जयंत सिंह तोमर ने इन छह कलाकारों को छह ऋतुओं और उनकी कला को छह दर्शन कहा है जो सर्वथा उचित ही है। इस प्रदर्शनी के आयोजन में वरिष्ठ कलाकार प्रकाश चंद्र जी का विशेष सहयोग रहा। ग्वालियर के अलसाये से कला जगत में यह प्रदर्शनी एक ताजा झोंके की तरह रही।
वरिष्ठ कलाकार आलोक शर्मा बिंदुओं के घनत्व से कैनवास और कागज पर चित्र रचना करते हुए एक अलग तरह के प्रभाव को उजागर करते हैं। प्रदर्शनी में शामिल उनके चित्रों और ड्राइंग्स में से ज्यादातर में जूते मुख्य विषय हैं। जूता मनुष्य की यात्रा के विभिन्न आयामों के साक्षी रहे हैं इसीलिए आलोक जी अपने चित्रों में घायल जूतों को भी रचते हैं जो कोरोना काल में सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा करने वाले लोगों की पीड़ा को सामने लाते हैं। उनके यहां जूता निर्जीव न रहकर सजीव जीवन का प्रतीक बन जाता है। उनके कुछ कामों में प्राकृतिक और वनस्पतिक रूप भी दिखाई देते हैं जो जीवन की संभावनाओँ को अलग आयाम के साथ देखने का संकेत करते हैं।
किसी खिड़की या दरवाजे की झिर्री से आती रौशनी की किरण, पानी में झिलमिलाती रौशनी, किसी छप्पर के छेदों से जमीन पर गिरती धूप की करणें, यही है बलवंत सिंह भदौरिया की कला का मर्म। शहर को देखने का यह एक अलग नजरिया है जो उसकी रौशनी के साथ ही उसके अंधेरे को विचार के केंद्र में लाता है। बलवंत जी के कैनवास रंगों से आच्छादित हैं, जैसे जीवन अपने पूरे उल्लास से नाच रहा है। रौशनी के टुकड़ों जैसी अमूर्त संरचनाएं जो कई बार शीशे से आती रौशनी की प्रत्यावर्तित किरणें का आभास कराती हैं, किसी तरह के अंधेरे की पक्षधर नहीं कही जा सकती पर हर रौशनी के पीछे अंधेरा होता है। रौशनी की यह करणें जो जमीन पर कहीं छापों के रूप में हैं तो कहीं तीखी धाराओं के रूप में अपने सौंदर्य के साथ ही इस बात की तरफ भी इशारा करती हैं कि समकालीन नगर सभ्यता की चकाचौंध रौशनी दूसरा कुछ देखने से रोकती है, और वह दूसरा कुछ और कुछ नहीं, वह अंधेरा है जो इस रौशनी के पीछे दबा है या दबा दिया गया है। इस तरह बलवंत जी की रचनाएं अमूर्त होते हुए भी मूर्त संसार के साथ एक संबंध बना लेती हैं।
हरिकृष्ण कदम प्रकृति के चितेरे हैं। प्रकृति के अदभुत दृश्यों को कैनवास पर उतारने की उनकी कोशिश उस समय और कुशलता से सामने आती है जब वह किसी विशेष स्थान पर एक विशेष समय में होने वाले वर्ण परिवर्तन को सामने रखते हैं। कैनवास पर टैक्सचर के साथ ही आवश्यक होने पर वह रंगों की सपाट सतहों का भी प्रयोग करते हैं। रंगों के मिश्रण और संतुलन पर उनका पूरा नियंत्रण है। नदी, मैदान, पहाड़ और आकाश का वर्ण वैचित्र्य उन्हें आकर्षित करता है इसीलिए वह अक्सर उन स्थानों पर जाते हैं जहां उन्हें प्रकृति के वैविध्य से साक्षात्कार का अवसर मिलता है। भूदृश्य अंकन करने वाले चित्रकारों में अक्सर समानता खोज ली जाती है जो बेमानी है क्योंकि प्रत्येक कलाकार की देखने और अभिव्यक्त करने की क्षमता अलग होती है जो उसकी कला को अलग रूप देती है।
डॉ. नीना खरे के चित्र प्रकृति के सौंदर्य की सूक्ष्मतम संरचनाओं को केंद्र में रखते हुए देखने वालों के सामने एक अलग ही दृश्य उपस्थित करते हैं। किसी वन या उपवन और उसमें भी किसी एक या दो पेड़ के कुछ अंशों का वह जितनी सुक्ष्मता से अंकन करती है वह बरबस ही मोह लेता है। पेड़ों के तनों के रेशे जैसे जीवन की धड़कन का एक अलग रूप हमारे सामने लाते हैं। कला में प्रतीकात्मकता का उनके काम में बड़ी सुंदरता से प्रयोग किया गया है। उनकी कला भारतीय कला परंपरा के साथ भी एक मीठा संबंध स्थापित करती दिखाई देती है, विशेषरूप से लघु चित्रकला से जिसमें प्रकृति के सुक्ष्म और गतिमान अंकन की प्रधानता रही है। नीना जी के चित्रों में भी हम देखते हैं कि एक तरफल वृक्ष के तने की आंतरिक संरचना की गतिमान रेखाएं हैं तो शीर्ष पर टहनियों और पत्तों में परस्पर सम्मिलन के साथ गतिशीलता का आभास होता है।
प्रेमकुमार सिंह सिकरवार उत्पत्ति के दर्शन को अमूर्त भाषा में चटख रंगों के साथ सामने रखते हैं। पिछले दिनों दिल्ली में उनकी एकल प्रदर्शनी देखने का अवसर मिला था और अब एक बार ग्वालियर में फिर उनके चित्रों से मिलना हुआ। उनके चित्रों से मिलना हर बार एक नया अनुभव होता है। अपनी अमूर्त संरचनाओं में वह जितने स्पष्ट हैं उतने ही रहस्यमय भी। संरचनात्मक घनत्व और रंगों का संयोजन जीवन के उस जटील पक्ष को सामने लाता है जिसे हम उत्पत्ति कहते हैं। किसी भी जड़ और चेतन की उत्पत्ति हमारे समाने बड़े ही सहज रूप में सामने आती है पर उसकी प्रक्रिया की जटीलता, उसके रहस्य को कम ही लोग देख और समझ पाते हैं। इन चित्रों में फूलों आदि जैविक उत्पत्ति के साथ ही भाषा का प्रयोग जो अक्षरों और अंकों के रूप में है, उत्पत्ति की अवधारणा को एक नया अर्थ देता है।
डॉ. संजय धवले पेशे से चिकित्सक हैं और मन से कलाकार। अपने पेशेवर जीवन की व्यस्तता के बाद भी वह चित्र रचना के लिए समय निकाल लेते हैं। उनके लिए जीने का यह एक माध्यम है। शुरु में आकृतियों के साथ प्रयोग करते हुए वह जीवन के मूल अर्थ की तलाश में अमूर्त चित्रों तक पहुंच गये हैं। इस प्रदर्शनी में शामिल उनके कुछ चित्रों में प्रकृति के अमूर्त सौंदर्य का उद्घाटन था तो कुछ में जैसे वह आध्यात्मिकता को साधते दिखाई दे रहे थे। हालांकि आध्यात्मिकता उनका विषय नहीं है पर चित्र की संरचना में जिस तरह प्राकृतिक तत्वों के साथ अमूर्त रंग संयोजन हुआ है वह ऐसा वातावरण तैयार करता है जिसमें एक से अधिक अर्थ की ध्वनियां समाहित हैं। इसीलिए उनके चित्रों में चाहे-अनचाहे आध्यात्मिकता का तत्व प्रवेश कर ही जाता है। मन की सुंदरता के साथ ही शुद्धता का भाव रंगों के साथ जागृत होता है। चित्रों में पुष्प की अमूर्त छवियों के साथ अन्य अपरिचित रूपकार आकर्षित करते हैं।
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