Monday, 16 December 2024

कला महत्वपूर्ण है उसकी कीमत नहीः नंद कत्याल से डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज की बातचीत के अंश

नंद कत्याल से बातचीत कई बार हुई और कई विषयों पर हुई। 2005 से लेकर करीब 2012 तक उनसे अक्सर मिलना होता रहा। ललित कला अकादेमी के गढ़ी केंद्र में वह और प्रेम सिंह का एक ही स्टूडियो में काम करते थे। उनसे हुई बहुत सारी बातें अलिखित ही रह गईं। उनसे प्रेमचंद और उनकी अपनी कला पर एक-दो बार मेरा लिखा कुछ प्रकाशित हो पाया। आज जब वह नहीं रहे तो बहुत सारी बातें याद आ रही हैं। कला के साथ ही संगीत, साहित्य और दूसरी कलाओं के प्रति भी उनमें गहरा लगाव था। कला और बाजार के बीच उन दिनों बन रहे नये संबंध को लेकर वह बहुत स्पष्ट थे और मानते थे कि कलाकार को बाजार की बजाय सिर्फ अपने काम पर ही ध्यान देना चाहिए। 30 जनवरी 1935 को लाहौर में उनका जन्म हुआ था। देश के विभाजन के बाद उनका परिवार दिल्ली आ गया। उनके पिता राम लाल कत्याल भी चित्रकार थे। इसीलिए नंद कत्याल को कम उम्र में ही कला सामग्री मिल गई थी और लाहौर के कला मंडल से उनका परिचय हो गया था। उन्होंने दिल्ली पॉलिटेक्निक (वर्तमान में दिल्ली आर्ट कॉलेज) में ललित कला का अध्ययन किया और एक कला शिक्षक के रूप में काम किया। 1960 के दशक की शुरुआत में, कत्याल अमेरिकन सेंटर से जुड़ गये। उन्होंने कई वर्ष तक स्पैन पत्रिका के कला निर्देशक के रूप में काम किया। उन्होंने 1963-1967 की अवधि के लिए दिल्ली शिल्पी चक्र के सचिव के रूप में कार्य किया। 2001 में 10वें इंडियन त्रिनाले के निदेशक थे। उन्हें 1995 में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। देश-विदेश की अनेक आर्ट गैलरियों में उनकी एकल व समूह प्रदर्शनियां हुईं। 16 दिसंबर 2024 को दिल्ली में उनका निधन हो गया। यहां उनकी स्मृति में उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूं। कला के साथ आपकी साहित्य में भी रुचि रही है। आपने एक बार प्रेमचंद को लेकर भी पेंटिंग बनाई थी, उसकी प्रेरणा आपको कहां से मिली? प्रेमचंद पर पेंटिंग मैंने सहमत संस्था के एक कार्यक्रम के लिए बनाई थी। कला और साहित्य, दोनों ऐसी चीजें हैं जिनके प्रति आम लोगों में कोई चेतना नहीं है। पेंटिंग देखने और समझने वाले लोग बहुत कम हैं। यहां तक कि जो उनको खरीदते हैं वह भी आमतौर पर उसे समझते नहीं हैं। शायद इसका एक कारण यह भी है कि पेंटिंग और साहित्य अब उस तरह से लोगों के मन को छूते नहीं है जिस तरह प्रेमचंद और शरदचंद्र छूते थे। मुझे याद है कि जब मैं नौवीं-दसवीं में पढ़ता था तब तक तो यही समझता था कि शरदचंद्र हिंदी के लेखक हैं क्योंकि उस समय पुस्तकालय में सबसे ज्यादा किताबें प्रेमचंद और शरदचंद्र की ही होती थीं। उस समय यही दो लेखक सबसे ज्यादा पढ़े जाते थे। प्रेमचंद को मैं बचपन से ही पढ़ता रहा हूं। स्कूल में पाठ्यपुस्तक में गुल्ली-डंडा पहली कहानी थी उनकी, जो मैंने पढ़ी। वो कितनी खूबसूरती से चरित्रों को गढ़ते थे, स्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन लाते थे। एकदम साधारण भाषा में वे जीवन की सच्चाइयों को व्यक्त कर देते थे। ऐसे-ऐसे वाक्य उनके लेखन में होते थे कि एक व्यक्ति को यह तो बता दिया कि गंदा पानी नहीं पीना चाहिए परंतु उसकी प्यास कैसे बुझे यह नहीं बताया, यह नहीं बताया कि गंदे पानी को उबाल कर किटाणुरहित किया जा सकता है। आज भी कितने ही लोग हैं जो इस बात को नहीं जानते। प्रेमचंद के लेखन के जो सामाजिक सरोकार हैं, जो भाव उनमें हैं, वे आज भी प्रभावित करते हैं। मैंने प्रेमचंद का रेखांकन बनाया और उसे उस रूप में बनाया जिस रूप में प्रेमचंद लोगों के निकट हैं। आर्ट आखिर करता क्या है, वह आपकी संवेदना को इतना बढ़ा देता है, उसे रिफाइन कर देता है कि रोजमर्रा की जिंदगी में हर काम बहुत खूबसूरत लगने लगता है। दुनिया को तो कोई बदल नहीं सका, बुद्ध तक नहीं बदल पाये लेकिन प्रेमचंद पर रेखांकन करते समय मुझे लगा कि ऐसा कुछ बनाना चाहिए कि उसे देखकर लोग उनके साहित्य को पढ़ने के प्रति उत्सुक हों।
आपकी अपनी कला के संदर्भ में बात करें तो आपने भूदृश्यों के चित्रण को ही मुख्य रूप से क्यों चुना? शुरुआत में मैंने आकृतिमूलक काम किये थे, अब भी कभी-कभी करता हूं। मेरे आकृतिमूलक कामों में भी अमूर्तन था। मैंने कई लोगों के पोर्ट्रेट भी बनाये हैं। पर धीरे-धीरे मेरा रुझान भूदृश्यों की तरफ चला गया। ऐसा शायद इसलिए हुआ कि मैंने अनेक स्थानों की यात्रा की है, विशेषरूप से पर्वतीय क्षेत्रों की। मेरे खयाल से हम कलाकार अपने जीवन और आसपास के वातावरण की प्रतिक्रिया को रचते हैं। जो चीज हमें रोकती है, हमारे दिल को छू जाती है उसे हम जज्ब करने की कोशिश करते हैं। जैसे किसी ने लिखा है कि वी एन आर्टिस्ट डज नॉट पेंट व्हाट वी सी, बट पेंट व्हाट ही मेक हिम सी। तो जो चीज हमें पकड़ती है वही हम पेंट करते हैं। भूदृश्य मुझे हमेशा आकर्षित करते रहे हैं। अभी मैं लद्दाख गया था तो वहां के दृश्य मुझे अजूबे की तरह लगे। वहां के पेड़, पहाड़ियां और कुल मिलाकर पूरा वातावरण बहुत ही खूबसूरत और आध्यात्मिक जैसा लगा। अब मैं उसी को पेंट कर रहा हूं। हम जो कुछ देखते हैं उसके प्रति हमारा रिस्पांस बदलता रहता है और हम उसी को पेंट करते हैं। किस कलाकार का काम आपको सबसे अच्छा लगता है? मैं तो यही कहूंगा कि सबने अपने स्तर पर कला में कुछ न कुछ नया जोड़ा ही है। हाल ही में मैंने रामकुमारजी की प्रदर्शनी देखी जिसने मुझे बहुत ही प्रभावित किया। उनके अलावा हुसेन के बारे में तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। इनके अलावा भूपेन खक्खर, स्वामीनाथन, सोमनाथ होर हैं जिन्होंने मुझे लगता है कि भारतीय कला को एक नयी सोच दी है। सोमनाथ होर के एचिंग हों या स्कल्पचर, क्या कमाल का काम किया है उन्होंने। यही बात भूपेन खक्खर के साथ है। मेरे ख्याल से वे पहले भारतीय कलाकार हैं जिनकी पहली बार विदेश में एकल प्रदर्शनी हुई। यह बात बहुत लोगों को तो पता भी नहीं होगी।
जब आपकी पहली पेंटिंग बिकी थी तो वो कैसा अनुभव रहा था? यह उन दिनों की बात है जब मैं आर्ट स्कूल से निकला ही था। शायद 1960-61 की बात है। उन दिनों आईफैक्स की प्रदर्शनी हुआ करती थी। उन्हीं दिनों हम लोगों का एक ग्रुप हुआ करता था जो प्रदर्शनी किया करता था। आईफैक्स की प्रदर्शनी में डा. करणसिंह ने मेरी एक पेंटिंग 130 रुपये में खरीदी थी। जब पता लगा कि उन्होंने मेरी पेंटिंग खरीदी है तो बहुत खुशी हुई। ऐसा होना स्वाभाविक भी था क्योंकि मैं एकदम नया था। तो उस पैसे को लेकर में तत्काल गया और रंग आदि खरीद लाया ताकि और काम कर सकूं। आपकी पहली पेंटिंग 130 रुपये में बिकी थी। तब से लेकर आज तक आपने लंबा सफर तय किया है। आज आपकी पेंटिंग कीमत भी अधिक है, यह देखकर आप कैसा महसूस करते हैं? आज मेरे काम की कीमत हजारों में होती है। लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि कीमत से कला का क्या वास्ता? उस 130 रुपये और आज मिल रहे हजारों रुपयों में मैं कोई अंतर नहीं समझता हूं। सही अर्थ में तो उस समय जो आनंद मुझे आया वह अब नहीं मिल सकता। फिर उस समय होता क्या था कि प्रदर्शनी करते थे तो उसमें से बहुत सी पेंटिंग वापस आ जाती थीं जिनपर हम फिर से काम करते थे और फिर प्रदर्शनी करते थे। सालों-साल यह सिलसिला चलता रहा। पुरानी पेंटिंग कुछ ही बची रह पाती थीं। उस समय बहुत पेंटिंग बिकती भी नहीं थीं। आज तो लगभग सभी पेंटिंग बिक ही जाती हैं इसलिए अब बिकने को लेकर कोई रोमांच नहीं रहा। अब लेाग ज्यादा देखने आते हैं, प्रदर्शनियां ज्यादा होती है, गैलरियों की संख्या भी बढ़ गयी हैं। उस समय कला समीक्षा के लिए सभीअखबारों में जगह होती थी, फाबरी, कृष्ण चैतन्या, केके नायर जैसे लोग लिखते थे। से पूरी गंभीरता से कला के बारे में लिखते थे। स्वामीनाथन ने कला पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण लेखन किया है। कला को लोकप्रिय बनाने में उन सबका काफी योगदान रहा। लोग उनकेलिखे को पढ़ते भी थे। उन्हेंपढ़कर कलाकारों के बीच भी चर्चा होती थी कि ऐसा क्यों लिखा और जो लिखा उसका अर्थ क्या है, वो कितना सही है। मैं यह नहीं कहता कि जो कुछ वो लिखते थे वह सब सही होता था परंतु इसके कारण कला को लेकर एक संवाद बनता था। पेंटिंग सोचने के लिए एक खिड़की खोलती थीं। आज भारतीय कला जगत में अजीब तकरह का माहौल है जो दुनिया के किसी देश में शायद ही हो। हमारे यहां प्रदर्शनियां देखने ज्यादातर कलाकार ही आते हैं। शायद दुनिया के अन्य देशों में भी ऐसा ही होता हो। हमारे यहां प्रदर्शनी देखने आने वालों में मुश्किल से पांच प्रतिशत लोग होते होंगे जो कला को समझते हैं, उसके प्रति गंभीर होते हैं। चित्र विनोद भारद्वाज की फेसबुक वॉल और गूगल से साभार।

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