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Wednesday, 4 December 2024

अमृता शेरगिल की कला का समाजः डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज

अमृता शेरगिल का जन्म 10 जनवरी 1913 को हंगरी के बुडापेस्ट में हुआ था। उनके पिता भारतीय सिख उमराव सिहं शेरगिल मजीठिया थे और माता हंगेरियन मैरी एंटोनेट गोटेसमैन थीं। अमृता पहली भारतीय महिला चित्रकार थीं जिन्होंने कला को मंदिरों और आख्यानिक चित्रण से मुक्त कर आम जीवन के चित्रण की शुरुआत की। उनके चित्रों की व्याख्या करते हुए ज्यादातर लेखकों ने उनकी कला में आम महिलाओं को काम करते हुए या दूसरी गतिविधियों में संलग्न होने के चित्रण को अधिक महत्व दिया। उनकी चित्रण शैली पश्चिमी कला से प्रभावित थी क्योंकि उनकी शिक्षा पश्चिमी कला में ही हुई पर ऐसा नहीं है कि उनकी शैली में भारतीयता सिरे से गायब थी। उनकी रंग योजना और संयोजन पर लघु चित्रकला से लेकर लोक कलाओं तक का असर देखा जा सकता है। अनेक चित्रों में चित्र फलक के विभाजन पर लघु चित्रकला का असर रहा है। चित्र को दो या तीन हिस्सों में बांटने की विधि इस बात का प्रमाण है। इसी प्रकार रंग योजना में भी इस बात को रेखांकित किया जा सकता है। वैसे उनकी कला में चित्र संयोजन और रंग प्रयोग पर पॉल गौगुइन का प्रभाव भी रेखांकित किया गया है।
यह दुर्भाग्य है कि अमृता शेरगिल के रचना संसार के विषयों का ज्यादातर लोगों ने सतही मूल्यांकन किया। उनके कला-कौशल की बातें हुईं, उनके चित्रों में सामान्य भारतीय महिलाओं के चित्रण को महत्वपूर्ण माना गया पर उनकी कला का जो सामाजिक पक्ष है, विशेषरूप से महिलाओं की समाज में स्थिति को लेकर, उसकी अनदेखी की गई। उनके रचना संसार में हमें वैसे दो तरह के चित्र मिलते हैं। एक में वह स्वयं या उनके परिजनों के अलावा आधुनिक महिलाओं के आत्मचित्र प्रमुख हैं। ऐसे चित्रों में कुछ अनावृत्त देह चित्रण भी शामिल है। दूसरे वह चित्र हैं जिनका विषय भारतीय महिलाएं हैं। ऐसे चित्रों ने ही उन्हें भारत में पहचान दिलाई। इन चित्रों में हम देखें तो ज्यादा संख्या ऐसे चित्रों की हैं जिनमें महिलाएं कोई न कोई काम करती दिखाई दे रही हैं या फिर आपस में बातचीत करती हुई हैं। कुछ में वह कार्यमुक्त अवस्था में भी चित्रित हैं।
उनकी कला का जो सामाजिक पक्ष है, जो रेखांकित नहीं किया गया, वह इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि उनका रचनाकाल वह समय है जब समाज में स्त्रियों को न के बराबर स्वतंत्रता थी। अमृता स्वयं जिस परिवार से संबंध रखती थीं, उसमें स्त्री अधिक स्वतंत्र थी, समाज के उच्च वर्ग में भी उसे एक सीमा तक स्वतंत्रता प्राप्त थी पर समाज के दूसरे वर्गों में स्त्री स्वतंत्रता एक स्वप्न थी। अमृता ने अपनी कला में ऐसी ही स्त्रियों की स्थिति को अधिक रचा है। उदाहरण के लिए हम उनकी मिर्च बीनती स्त्रियों की पेंटिंग में देख सकते हैं। उसमें स्त्रियां काम कर रही हैं पर पास ही एक आदमी है। उस आदमी की उपस्थिति इस बात की तरफ इशारा कर रही है कि वह उन काम कर रही स्त्रियों पर नजर रख रहा है। इसी तरह का चित्रण एक अन्य चित्र में है जिसमें कुछ स्त्रियां अपने बच्चों के साथ हैं और आपस में बातचीत करती दिखाई देती हैं। उनसे दूर दरवाजे पर एक आदमी खड़ा उनकी तरफ देख रहा प्रतीत होता है। क्या इसे तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्वतंत्रता के बाधित होने की प्रतिकात्मक अभिव्यक्ति नहीं माना जाना चाहिए?
इसी प्रकार उनका एक चित्र है हल्दी पीसती औरतें। इस चित्र में दो औरतें हल्दी पीस रही हैं और उनके पास एक लड़की बैठी है। इस सामान्य से चित्र संयोजन में विशेष बात तब उत्पन्न होती है जब चित्र में पेड़ के पीछे एक और स्त्री दिखाई देती है। यह स्त्री कुछ कर नहीं रही है और उसका चेहरा ढंका हुआ है। उसने अपने चेहरे पर हाथ रखा हुआ है जैसे वह दुखी हो। चित्र में इस तीसरी स्त्री की उपस्थिति क्या समाज के जातीय वर्गीकरण की तरफ इशारा है, इस बारे में सिर्फ संकेत को ही समझा जा सकता है। इसी प्रकार जिस पेंटिंग में एक दुल्हन के श्रृंगार का चित्रण है उसमें भी देख सकते हैं कि दुल्हन या उसे सजा रही स्त्रियों के चेहरे पर किसी प्रकार का उल्लास का भाव नहीं है। ऐसा क्यों है इसपर विचार किया जाना चाहिए। उल्लासहीन या उदासीन चेहरे अमृता शेरगिल के चित्रों में अक्सर तब आते हैं जब वह भारतीय स्त्रियों का चित्रण कर रही होती हैं। जब उन्होंने अपने पारिवारिक लोगों के या दूसरे लोगों के चित्र रचे हैं, यहां तक कि अपने आत्मचित्र में भी, चेहरों पर उल्लास है। क्या इसके कोई सामाजिक निहितार्थ हैं इसपर भी विचार करने की आवश्यकता है।
अमृता शेरगिल को अपने अल्प जीवन में बहुत ज्यादा चित्रों की रचना करने का अवसर नहीं मिला फिर भी उनके यहां हमें नगरीय भूदृश्यों की रचना भी मिलती है। स्त्रियां उनकी कला के केंद्र में हमेशा रहीं। ऐसा नहीं कि उन्होंने पुरुषों को केंद्र में रखकर चित्र नहीं रचे पर उनकी संख्या कम है। ऐसे ही एक चित्र में उन्होंने ब्रह्मचारी आश्रम वासियों का चित्रण किया है जिसमें उनके मनोभाव उनकी वास्तविक मनस्थिति की तरफ संकेत करते हैं। 5 दिसंबर 1941 को अमृता शेरगिल के जीवन का कैनवास पूरा हो गया। अविभाजित भारत के लाहौर में उन्होंने अंतिम सांस ली।
*सभी चित्र गूगल से साभार लिये गये हैं। इन चित्रों का प्रयोग केवल लेख के संदर्भ के लिए है। इनका किसी प्रकार का व्यावसायिक इस्तेमाल करना उद्देश्य नहीं है।