कला विमर्श Kala Vimarsha
कला विमर्श एक मंच है कलाओं और विचारों का। इस मंच से हम हिन्दी और अंग्रेजी के साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं में भी सामग्री देने का प्रयास करेंगे। सम्पादक : वेद प्रकाश भारद्वाज Kala Vimarsha is a platform for art and thought. we try to explore it in different Indian languages. All artists and writers are invited to share informations and thoughts. please mail all material text and images. my email ID is bhardwajvedprakash@gmail.com Editor : Ved Prakash Bhardwaj
Thursday, 19 December 2024
कला में कबीरः डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज
भारतीय इतिहास का मध्यकाल जिन कुछ विशेष बातों के लिए जाना जाता है उनमें से एक भक्ति आंदोलन है। इसी भक्ति आंदोलन का एक पक्ष है हिंदी कविता का भक्तिकाल जो वास्तव में क्षेत्रीय भाषाओं की कविताओं का समय था। यही वह समय था जब साहित्य दरबारों से बाहर निकला, संस्कृत के एकाधिकार को उसने चुनौती दी और लोक मानस को दिशा देने का काम किया। तुलसीदास ने यदि रामकथाओं को सुनने - सुनाने के उच्च वर्ग के एकाधिकार को चुनौती दी तो कबीर ने धर्म और सामाजिक जीवन के विरोधाभासों को निशाना बनाया। यह आश्चर्य नहीं की कबीर, रैदास, रसखान रहीम जैसे कवियों ने स्थानीय भाषा के साथ ही जीवन के व्यावहारिक मूलभूत प्रश्नों को उठाया। इन सब में कबीर दास अधिक प्रभावी और लोकप्रिय हुए। उनका प्रभाव आज सैकड़ों साल बाद भी बना हुआ है और आज भी वह प्रासंगिक हैँ। कबीर अपने कथ्य में सरल भी हैं और विरल भी। कबीर की रचनाएं बहुआयामी यथार्थ को सामने लाती हैं। इसीलिए उनका दूसरी कलाओं में अनुवाद या अभिव्यक्ति सरल नहीं है। चित्रकला में कई कलाकारों ने कबीर को लेकर पहले भी काम किया है जिनमें अर्पणा कौर और गुलाम मोहम्मद शेख के नाम प्रमुखता से लिये जा सकते हैं। इन दिनों कबीर के दोहों और अन्य रचनाओं को केंद्र में रखकर कुछ कलाकारों की रचनाओं की एक प्रदर्शनी चल रही है। इस प्रदर्शनी की क्यूरेटर हैं वरिष्ठ कलाकार दुर्गा कैंथोला। इस प्रदर्शनी की पिछले कोई छह माह में हुई तैयारी का नतीजा 19 दिसंबर 2024 की शाम दिल्ली की अर्पणा आर्ट गैलरी में सामने आया। यह प्रदर्शनी 24 दिसंबर तक रहेगी।
कबीर में जो निर्भीकता है उसे कला में उतर पाना आसान नहीं है क्योंकि कबीर कोई ठहरा हुआ समय नहीं है, वह सतत प्रवाहित है। अतीत से वर्तमान तक कबीर एक परम्परा के रूप में उपस्थित हैं, एक ऐसी परम्परा जो लगातार विचारशील और आलोचनात्मक रहती है। इस प्रदर्शनी में शामिल कई क्लाकृतियों में कबीर की निर्भिक और आलोचनात्मक दृष्टि दिखाई देती है। प्रदर्शनी में वरिष्ठ कलाकार अर्पणा कौर की पेंटिंग शामिल है जो 1993 में रची गयी थी। अर्पणा कौर ने कबीर को लेकर पूरी एक श्रृंखला रची है जिसमें से एक चित्र यहां प्रदर्शित है। प्रदर्शनी में अपर्णा आनंद सिंह, माधुरी शर्मा, निताशा जैनी, पूजा मुदगल, सरला चंद्रा, संगीता गुप्ता, आराधना टंडन, शिखा गुप्ता, सुबिका लाल, अक्षत सिन्हा, सूची कालरा बुद्धिराजा, शास्वती चौधरी, चांदना भट्टचार्यजी और दुर्गा कैथोला के काम शामिल हैं। प्रदर्शनी में ज्यादातर काम संस्थापन कला और नवीन माध्यमों की कला है। निताशा जैनी की एक कृति स्टेनलेस स्टील और दूसरी एमडीएफ बोर्ड से कटिंग के जरिये रची गयी है जिसमें दर्पण का भी प्रयोग किया गया है। यह निताशा जैनी की पेंटिंग्स का विस्तार है जिसमें उन्होंने अपनी तरह से कबीर को समझा और दिखाया है। कबीर की रचनाएं सच को देखने-दिखाने का दर्पण हैं जिसका निताशा जी ने प्रभावशाली इस्तेमाल किया है। यह रचनाएं वर्तमान में कबीर की सार्थकता और प्रासंगिकता को उजागर करती हैं।
आराधना टंडन की दो पेंटिंग्स कबीर इन द गार्डन ऑफ लाइफ वर्तमान सभ्यता के संकटों की तरफ संकेत करती हैं। दुर्गा कैंथोला का शिल्प भी प्रभावित करता है। अक्षत सिन्हा का इंस्टालेशन माया मिश्रित माध्यम में रचा गया है जिसमें लकड़ी, दर्पण, मिट्टी, कपड़ा आदि शामिल हैं। कबीर की रचनाओं में प्रतिकात्मकता है उसका कलाकार ने बड़ी सूक्ष्मता से प्रयोग किया है। कबीर ने भी स्थूल जगत को केंद्र में रखते हुए उसकी सूक्ष्मतम स्थिति को देखने और दिखाने का काम किया है। कबीर में सिर्फ अध्यात्म नहीं है, उनमें जीवन के व्यावहारिक पक्ष भी हैं, उसमें शब्द ही नहीं, संगीत भी है, इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए अपर्णा आनंद सिंह ने प्रभावशाली इंस्टालेशन किया है। चांदना भट्टाचार्यजी की पेंटिंग पीस और पाथ ऑफ पीस अपने रंग संयोजन में कबीर जैसी उदातत्ता लिये हुए है।
माधुरी शर्मा का इंस्टालेशन हिया काया मा जूट, कपड़ा, मिट्टी के पॉट से बना है जो कबीर के पद झीनी झीना बीनी चदरिया को व्यक्त करता है। पूजा मुदगल की पेंटिंग्स में भी कबीर की चादर बुनने की प्रक्रिया केंद्र में है जिनमें उन्होंने जीवन से मृत्यु तक की यात्रा और अंतरमन के देव तत्व की खोज को व्यक्त किया है। संगीता गुप्त लंबे समय के कपड़े और जूट पर काम कर रही हैं। इससे पहले वह शिव के लेकर काम कर चुकी हैं। इसबार उन्होंने कबीर की रचनाओं को लेकर लेखन और चित्र, दोनों का मिश्रण करते हुए काम किया है जो प्रभावित करता है। शास्वती चौधरी ने कपड़े के कोलॉज और लिपि को संयुक्त करते हुए प्रभावशाली चित्र रचना की है जो आत्म और समय व समयातीत को व्यक्त करते हैं। सरला चंद्रा की एक पेंटिंग में कबीर का चेहरा है पर दूसरे कामों में उन्होंने अन्य लोगों के माध्यम से कबीर के विचारों को प्रत्यक्ष किया है। शिखा गुप्ता का इंस्टालेशन वाल्क विदइन प्रभावित करता है जिसमें उन्होंने लकड़ी, धागा, कपड़ा, मटका आदि के प्रयोग करते किया है। शुभिका लाल की कृति ए विवर्स सांग और लुक विदइन धागे, रस्सी से बुनाई शैली में कबीर के सत्व को सामने लाती हैं। शुची कालरा बुद्धिराजा का संस्थापन शिल्प कबीर के जीवन की निस्सारता के संदेश को व्यक्त करता है।
प्रदर्शनी में शामिल सभी कलाकारों ने इस बात को स्वीकार किया है कि कबीर की रचनाओं ने उन्हें प्रभावित और प्रेरित किया है। प्रदर्शनी में इंस्टालेशन की अधिकता इस बात का संकेत करती है कि सभी कलाकार एक नयी सोच और दृष्टि के साथ काम कर रहे हैं। इन कृतियों की एक विशेषता यह भी कही जाएगी कि इनपर कबीर के प्रभाव के साथ ही कबीर के उत्तर-प्रभाव के संकेत भी उपस्थित हैं। हालांकि कला के उत्तर प्रभाव हमेशा संदीग्ध रहे हैं क्योंकि कला, चाहे वह साहित्य हो या ललित कला, समाज पर किसी प्रकार का प्रभाव डाल पाते हैं, यह आज भी संदिग्ध है। इसके बाद भी यह प्रदर्शनी कम से कम कलाकारों पर प्रभाव डालेगी और उन्हें दूसरी दिशाओं में सोचने के लिए प्रेरित करेगी, इस बात की संभावना है।
Monday, 16 December 2024
कला महत्वपूर्ण है उसकी कीमत नहीः नंद कत्याल से डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज की बातचीत के अंश
नंद कत्याल से बातचीत कई बार हुई और कई विषयों पर हुई। 2005 से लेकर करीब 2012 तक उनसे अक्सर मिलना होता रहा। ललित कला अकादेमी के गढ़ी केंद्र में वह और प्रेम सिंह का एक ही स्टूडियो में काम करते थे। उनसे हुई बहुत सारी बातें अलिखित ही रह गईं। उनसे प्रेमचंद और उनकी अपनी कला पर एक-दो बार मेरा लिखा कुछ प्रकाशित हो पाया। आज जब वह नहीं रहे तो बहुत सारी बातें याद आ रही हैं। कला के साथ ही संगीत, साहित्य और दूसरी कलाओं के प्रति भी उनमें गहरा लगाव था। कला और बाजार के बीच उन दिनों बन रहे नये संबंध को लेकर वह बहुत स्पष्ट थे और मानते थे कि कलाकार को बाजार की बजाय सिर्फ अपने काम पर ही ध्यान देना चाहिए। 30 जनवरी 1935 को लाहौर में उनका जन्म हुआ था। देश के विभाजन के बाद उनका परिवार दिल्ली आ गया। उनके पिता राम लाल कत्याल भी चित्रकार थे। इसीलिए नंद कत्याल को कम उम्र में ही कला सामग्री मिल गई थी और लाहौर के कला मंडल से उनका परिचय हो गया था। उन्होंने दिल्ली पॉलिटेक्निक (वर्तमान में दिल्ली आर्ट कॉलेज) में ललित कला का अध्ययन किया और एक कला शिक्षक के रूप में काम किया। 1960 के दशक की शुरुआत में, कत्याल अमेरिकन सेंटर से जुड़ गये। उन्होंने कई वर्ष तक स्पैन पत्रिका के कला निर्देशक के रूप में काम किया। उन्होंने 1963-1967 की अवधि के लिए दिल्ली शिल्पी चक्र के सचिव के रूप में कार्य किया। 2001 में 10वें इंडियन त्रिनाले के निदेशक थे। उन्हें 1995 में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। देश-विदेश की अनेक आर्ट गैलरियों में उनकी एकल व समूह प्रदर्शनियां हुईं। 16 दिसंबर 2024 को दिल्ली में उनका निधन हो गया।
यहां उनकी स्मृति में उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूं।
कला के साथ आपकी साहित्य में भी रुचि रही है। आपने एक बार प्रेमचंद को लेकर भी पेंटिंग बनाई थी, उसकी प्रेरणा आपको कहां से मिली?
प्रेमचंद पर पेंटिंग मैंने सहमत संस्था के एक कार्यक्रम के लिए बनाई थी। कला और साहित्य, दोनों ऐसी चीजें हैं जिनके प्रति आम लोगों में कोई चेतना नहीं है। पेंटिंग देखने और समझने वाले लोग बहुत कम हैं। यहां तक कि जो उनको खरीदते हैं वह भी आमतौर पर उसे समझते नहीं हैं। शायद इसका एक कारण यह भी है कि पेंटिंग और साहित्य अब उस तरह से लोगों के मन को छूते नहीं है जिस तरह प्रेमचंद और शरदचंद्र छूते थे। मुझे याद है कि जब मैं नौवीं-दसवीं में पढ़ता था तब तक तो यही समझता था कि शरदचंद्र हिंदी के लेखक हैं क्योंकि उस समय पुस्तकालय में सबसे ज्यादा किताबें प्रेमचंद और शरदचंद्र की ही होती थीं। उस समय यही दो लेखक सबसे ज्यादा पढ़े जाते थे। प्रेमचंद को मैं बचपन से ही पढ़ता रहा हूं। स्कूल में पाठ्यपुस्तक में गुल्ली-डंडा पहली कहानी थी उनकी, जो मैंने पढ़ी। वो कितनी खूबसूरती से चरित्रों को गढ़ते थे, स्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन लाते थे। एकदम साधारण भाषा में वे जीवन की सच्चाइयों को व्यक्त कर देते थे। ऐसे-ऐसे वाक्य उनके लेखन में होते थे कि एक व्यक्ति को यह तो बता दिया कि गंदा पानी नहीं पीना चाहिए परंतु उसकी प्यास कैसे बुझे यह नहीं बताया, यह नहीं बताया कि गंदे पानी को उबाल कर किटाणुरहित किया जा सकता है। आज भी कितने ही लोग हैं जो इस बात को नहीं जानते।
प्रेमचंद के लेखन के जो सामाजिक सरोकार हैं, जो भाव उनमें हैं, वे आज भी प्रभावित करते हैं। मैंने प्रेमचंद का रेखांकन बनाया और उसे उस रूप में बनाया जिस रूप में प्रेमचंद लोगों के निकट हैं।
आर्ट आखिर करता क्या है, वह आपकी संवेदना को इतना बढ़ा देता है, उसे रिफाइन कर देता है कि रोजमर्रा की जिंदगी में हर काम बहुत खूबसूरत लगने लगता है। दुनिया को तो कोई बदल नहीं सका, बुद्ध तक नहीं बदल पाये लेकिन प्रेमचंद पर रेखांकन करते समय मुझे लगा कि ऐसा कुछ बनाना चाहिए कि उसे देखकर लोग उनके साहित्य को पढ़ने के प्रति उत्सुक हों।
आपकी अपनी कला के संदर्भ में बात करें तो आपने भूदृश्यों के चित्रण को ही मुख्य रूप से क्यों चुना?
शुरुआत में मैंने आकृतिमूलक काम किये थे, अब भी कभी-कभी करता हूं। मेरे आकृतिमूलक कामों में भी अमूर्तन था। मैंने कई लोगों के पोर्ट्रेट भी बनाये हैं। पर धीरे-धीरे मेरा रुझान भूदृश्यों की तरफ चला गया। ऐसा शायद इसलिए हुआ कि मैंने अनेक स्थानों की यात्रा की है, विशेषरूप से पर्वतीय क्षेत्रों की। मेरे खयाल से हम कलाकार अपने जीवन और आसपास के वातावरण की प्रतिक्रिया को रचते हैं। जो चीज हमें रोकती है, हमारे दिल को छू जाती है उसे हम जज्ब करने की कोशिश करते हैं। जैसे किसी ने लिखा है कि वी एन आर्टिस्ट डज नॉट पेंट व्हाट वी सी, बट पेंट व्हाट ही मेक हिम सी। तो जो चीज हमें पकड़ती है वही हम पेंट करते हैं। भूदृश्य मुझे हमेशा आकर्षित करते रहे हैं। अभी मैं लद्दाख गया था तो वहां के दृश्य मुझे अजूबे की तरह लगे। वहां के पेड़, पहाड़ियां और कुल मिलाकर पूरा वातावरण बहुत ही खूबसूरत और आध्यात्मिक जैसा लगा। अब मैं उसी को पेंट कर रहा हूं। हम जो कुछ देखते हैं उसके प्रति हमारा रिस्पांस बदलता रहता है और हम उसी को पेंट करते हैं।
किस कलाकार का काम आपको सबसे अच्छा लगता है?
मैं तो यही कहूंगा कि सबने अपने स्तर पर कला में कुछ न कुछ नया जोड़ा ही है। हाल ही में मैंने रामकुमारजी की प्रदर्शनी देखी जिसने मुझे बहुत ही प्रभावित किया। उनके अलावा हुसेन के बारे में तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। इनके अलावा भूपेन खक्खर, स्वामीनाथन, सोमनाथ होर हैं जिन्होंने मुझे लगता है कि भारतीय कला को एक नयी सोच दी है। सोमनाथ होर के एचिंग हों या स्कल्पचर, क्या कमाल का काम किया है उन्होंने। यही बात भूपेन खक्खर के साथ है। मेरे ख्याल से वे पहले भारतीय कलाकार हैं जिनकी पहली बार विदेश में एकल प्रदर्शनी हुई। यह बात बहुत लोगों को तो पता भी नहीं होगी।
जब आपकी पहली पेंटिंग बिकी थी तो वो कैसा अनुभव रहा था?
यह उन दिनों की बात है जब मैं आर्ट स्कूल से निकला ही था। शायद 1960-61 की बात है। उन दिनों आईफैक्स की प्रदर्शनी हुआ करती थी। उन्हीं दिनों हम लोगों का एक ग्रुप हुआ करता था जो प्रदर्शनी किया करता था। आईफैक्स की प्रदर्शनी में डा. करणसिंह ने मेरी एक पेंटिंग 130 रुपये में खरीदी थी। जब पता लगा कि उन्होंने मेरी पेंटिंग खरीदी है तो बहुत खुशी हुई। ऐसा होना स्वाभाविक भी था क्योंकि मैं एकदम नया था। तो उस पैसे को लेकर में तत्काल गया और रंग आदि खरीद लाया ताकि और काम कर सकूं।
आपकी पहली पेंटिंग 130 रुपये में बिकी थी। तब से लेकर आज तक आपने लंबा सफर तय किया है। आज आपकी पेंटिंग कीमत भी अधिक है, यह देखकर आप कैसा महसूस करते हैं?
आज मेरे काम की कीमत हजारों में होती है। लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि कीमत से कला का क्या वास्ता? उस 130 रुपये और आज मिल रहे हजारों रुपयों में मैं कोई अंतर नहीं समझता हूं। सही अर्थ में तो उस समय जो आनंद मुझे आया वह अब नहीं मिल सकता। फिर उस समय होता क्या था कि प्रदर्शनी करते थे तो उसमें से बहुत सी पेंटिंग वापस आ जाती थीं जिनपर हम फिर से काम करते थे और फिर प्रदर्शनी करते थे। सालों-साल यह सिलसिला चलता रहा। पुरानी पेंटिंग कुछ ही बची रह पाती थीं। उस समय बहुत पेंटिंग बिकती भी नहीं थीं। आज तो लगभग सभी पेंटिंग बिक ही जाती हैं इसलिए अब बिकने को लेकर कोई रोमांच नहीं रहा। अब लेाग ज्यादा देखने आते हैं, प्रदर्शनियां ज्यादा होती है, गैलरियों की संख्या भी बढ़ गयी हैं। उस समय कला समीक्षा के लिए सभीअखबारों में जगह होती थी, फाबरी, कृष्ण चैतन्या, केके नायर जैसे लोग लिखते थे। से पूरी गंभीरता से कला के बारे में लिखते थे। स्वामीनाथन ने कला पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण लेखन किया है। कला को लोकप्रिय बनाने में उन सबका काफी योगदान रहा। लोग उनकेलिखे को पढ़ते भी थे। उन्हेंपढ़कर कलाकारों के बीच भी चर्चा होती थी कि ऐसा क्यों लिखा और जो लिखा उसका अर्थ क्या है, वो कितना सही है। मैं यह नहीं कहता कि जो कुछ वो लिखते थे वह सब सही होता था परंतु इसके कारण कला को लेकर एक संवाद बनता था। पेंटिंग सोचने के लिए एक खिड़की खोलती थीं। आज भारतीय कला जगत में अजीब तकरह का माहौल है जो दुनिया के किसी देश में शायद ही हो। हमारे यहां प्रदर्शनियां देखने ज्यादातर कलाकार ही आते हैं। शायद दुनिया के अन्य देशों में भी ऐसा ही होता हो। हमारे यहां प्रदर्शनी देखने आने वालों में मुश्किल से पांच प्रतिशत लोग होते होंगे जो कला को समझते हैं, उसके प्रति गंभीर होते हैं।
चित्र विनोद भारद्वाज की फेसबुक वॉल और गूगल से साभार।
Friday, 13 December 2024
Anupam Sud Journey: A Full Circle by Dr. Ved Prakash Bhardwaj
Journey: A Full Circle is a profound retrospective exhibition that maps the transformative artistic journey of Anupam Sud, showcasing her prints, paintings, and collages. Organized by Delhi's Palette Art Gallery, this collection offers a panoramic view of Sud’s evolving practice, which deftly combines critical social commentary with innovative artistic techniques. Known primarily for her expertise in printmaking, this exhibition underscores her mastery across mediums, presenting smaller, intimate works alongside her signature large-scale prints.
At the heart of Anupam Sud's art is her exploration of the human condition, often addressing the dialectics of coexistence and conflict between men and women. While her works frequently feature the naked female form, the body transcends its physicality to become an idea—a symbol of vulnerability, power, and social commentary. Through her narrative-driven compositions, Sud critiques gender biases, challenges societal taboos, and reflects on contemporary life with unflinching honesty.
The exhibition highlights her ability to blend mediums innovatively. Many of the collages presented integrate print art with drawing, creating multidimensional layers of meaning. This experimental approach breathes new life into her work, offering a fresh lens through which to view her artistic pursuits. Notably, even in her smaller, more recent works, Sud continues to push boundaries by juxtaposing abstraction with realism, capturing the tension between tradition and modernity.
Sud's works are imbued with storytelling, often portraying the struggles and contradictions of human existence. Her art examines the precarious balance between time, space, and identity, using evocative symbolism to challenge societal norms. For instance, in one piece, she places a butterfly alongside a helicopter, creating a stark contrast that invites deeper interpretation. Similarly, she documents the despair of the pandemic era, vividly capturing the emotions etched on the faces of her male and female figures.
A key feature of the exhibition is the inclusion of older works where Sud draws from traditional art forms, such as miniature painting, to comment on the dynamic interplay between heritage and contemporary reality. Paintings like Cosmic Dance and Black Conch stand out as compelling examples of this synthesis, offering fresh perspectives on the continuity of cultural narratives. Her use of abstraction adds yet another layer of depth, as seen in the harmonious integration of natural elements with her recurring theme of femininity.
In recent years, Sud has delved deeper into issues like sexual exploitation, further enriching her narrative scope. By examining man-woman relationships through a lens of empathy and critique, she sheds light on the enduring power struggles and societal hypocrisies that shape gender dynamics. The emotional resonance of her work is undeniable, whether through the raw sadness in a subject's expression or the poetic interplay of symbolic motifs.
Journey: A Full Circle is more than a showcase of Anupam Sud's artistic milestones—it is a discovery of her essence as an artist and a storyteller. It celebrates her relentless pursuit of truth through art, her ability to address difficult themes with sensitivity, and her refusal to shy away from the complexities of life. Through this exhibition, viewers are invited to engage with her evolving narrative, exploring themes of gender, tradition, and social consciousness with a renewed perspective.
यात्रा एक पूर्ण चक्र
अनूपम सूद की एकल प्रदर्शनी
डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज
दिल्ली की पैलेट आर्ट गैलरी में 13 दिसंबर 2024 को वरिष्ठ कलाकार अनूपम सूद की एकल प्रदर्शनी शुरु हुई है। यह प्रदर्शनी अनुपम सूद की कला यात्रा को दर्शाती है। इस प्रदर्शनी में उनके पिछले कई सालों के छापाचित्रों के साथ ही कोलाज शामिल हैं। अनुपम सूद अपनी कला में अनावृत्त स्त्री देह के चित्रण के लिए मशहूर रही हैं पर उनके यहां स्त्री की अनावृत्त देह अपनी भौतिक स्थिति से अधिक एक विचार के रूप में सामने आती है। अपनी कला में वह समकालीन जीवन स्थितियों को आलोचनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करती हैं। मानव अस्तित्व की द्वन्द्वात्मक स्थिति को उन्होंने लगातार रचा है। स्त्री और पुरुष दोनों के बीच के सहअस्तित्व के साथ ही उनके बीच के टकराव को भी वह अपना विषय बनाती हैं। छापा कला में वह एक बड़ा नाम हैं पर उन्होंने पेंटिंग में भी उसी महारत के साथ काम किया है। इस प्रदर्शनी में उनके अनेक काम कोलाज हैं जिनमें उन्होंने छापा कला को भी एक हिस्सा बनाया है।
अनुपम सूद के काम की पूरी श्रृंखला, जिसे ‘द जर्नी: ए फुल सर्कल’ शीर्षक से दिल्ली की पैलेट आर्ट गैलरी नें प्रस्तुत किया है उनकी कला यात्रा के परिवर्तनों को समग्र रूप में सामने लाती है। इसे एक कलाकार की खोज भी कहा जा सकता है। प्रिंटमेकिंग में श्रम बल की अधिक आवश्यकता होती है। वह वैसे भी बड़े आकार के प्रिंट बनाने के लिए जानी जाती हैं। पर इस प्रदर्शनी में अपेक्षाकृत छोटे काम अधिक हैं। उनमें भी वह अपनी खोजा में एक नया आयाम जोड़ते हुए प्रिंट और ड्राइंग को एक करती हैं। लैंगिक पुर्वाग्रहों पर प्रहार इन चित्रों में भी है पर साथ ही समकालीन सामाजिक चेतना भी प्रखर रूप में सामने आती है।
अनूपम सूद की कला हमेशा नैरेटिव रही है। उनका प्रत्येक चित्र कोई कहानी कहता दिखाई देता है। इस कहानी के कहने में समय और अंतराल के मध्य मनुष्य की स्थिति के साथ ही पारंपरिक मध्यवर्गी वर्जनाओं को चुनौती भी है। इसके लिए कई बार वह एक ही फ्रेम में स्त्री और पुरुष की आकृतियों को एक-दूसरे के सामने उल्टा रचती हैं। ऐसे ही एक काम में वह हैलीकॉप्टर के साथ तितली का प्रयोग करती हैं जो अधिक मायनेखेज है। इसी प्रकार एक काम में उन्होंने पेंडेमिक के दौरान के हताश व्यक्ति का चित्रण किया है। ऐसे ही एक दूसरे काम में पुरुष और स्त्री, दोनों को दिखाया है जिनके चेहरों पर उदासी को साफ पढ़ा जा सकता है।
इस प्रदर्शनी में कुछ पुराने ऐसे काम भी हैं जिनमें उन्होंने पारंपरिक कलाओं, विशेषरूप से लघु चित्रकला का आंशिक प्रयोग किया है। यह चित्र परंपरा और वर्तमान के बीच के संबंध के साथ ही दोनों के बीच के परिवर्तन को भी उजागर करते हैं। कॉस्मिक डांस और ब्लैक कंच जैसे काम एक नई अर्थ छवि के साथ सामने आते हैं। इसके अलावा प्रदर्शित चित्रों में के कुछ में उन्होंने अमूर्तन के प्रभाव का बड़ी सुंदरता से प्रयोग किया है। कुछ चित्रों में स्त्री के साथ प्रकृति का चित्रण भी आकर्षित करता है। स्त्रियों के संसार में पिछले कुछ सालों में स्त्री-पुरुष संबंधों के साथ ही उनके यौन शोषण जैसे विषयों को भी अनूपम सूद सामने रखती हैं।
photographs by Ved Prakash Bhardwaj and praveen mahto. All images of artworks courtesy Palette Art Gallery.
Wednesday, 4 December 2024
अमृता शेरगिल की कला का समाजः डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज
अमृता शेरगिल का जन्म 10 जनवरी 1913 को हंगरी के बुडापेस्ट में हुआ था। उनके पिता भारतीय सिख उमराव सिहं शेरगिल मजीठिया थे और माता हंगेरियन मैरी एंटोनेट गोटेसमैन थीं। अमृता पहली भारतीय महिला चित्रकार थीं जिन्होंने कला को मंदिरों और आख्यानिक चित्रण से मुक्त कर आम जीवन के चित्रण की शुरुआत की। उनके चित्रों की व्याख्या करते हुए ज्यादातर लेखकों ने उनकी कला में आम महिलाओं को काम करते हुए या दूसरी गतिविधियों में संलग्न होने के चित्रण को अधिक महत्व दिया। उनकी चित्रण शैली पश्चिमी कला से प्रभावित थी क्योंकि उनकी शिक्षा पश्चिमी कला में ही हुई पर ऐसा नहीं है कि उनकी शैली में भारतीयता सिरे से गायब थी। उनकी रंग योजना और संयोजन पर लघु चित्रकला से लेकर लोक कलाओं तक का असर देखा जा सकता है। अनेक चित्रों में चित्र फलक के विभाजन पर लघु चित्रकला का असर रहा है। चित्र को दो या तीन हिस्सों में बांटने की विधि इस बात का प्रमाण है। इसी प्रकार रंग योजना में भी इस बात को रेखांकित किया जा सकता है। वैसे उनकी कला में चित्र संयोजन और रंग प्रयोग पर पॉल गौगुइन का प्रभाव भी रेखांकित किया गया है।
यह दुर्भाग्य है कि अमृता शेरगिल के रचना संसार के विषयों का ज्यादातर लोगों ने सतही मूल्यांकन किया। उनके कला-कौशल की बातें हुईं, उनके चित्रों में सामान्य भारतीय महिलाओं के चित्रण को महत्वपूर्ण माना गया पर उनकी कला का जो सामाजिक पक्ष है, विशेषरूप से महिलाओं की समाज में स्थिति को लेकर, उसकी अनदेखी की गई। उनके रचना संसार में हमें वैसे दो तरह के चित्र मिलते हैं। एक में वह स्वयं या उनके परिजनों के अलावा आधुनिक महिलाओं के आत्मचित्र प्रमुख हैं। ऐसे चित्रों में कुछ अनावृत्त देह चित्रण भी शामिल है। दूसरे वह चित्र हैं जिनका विषय भारतीय महिलाएं हैं। ऐसे चित्रों ने ही उन्हें भारत में पहचान दिलाई। इन चित्रों में हम देखें तो ज्यादा संख्या ऐसे चित्रों की हैं जिनमें महिलाएं कोई न कोई काम करती दिखाई दे रही हैं या फिर आपस में बातचीत करती हुई हैं। कुछ में वह कार्यमुक्त अवस्था में भी चित्रित हैं।
उनकी कला का जो सामाजिक पक्ष है, जो रेखांकित नहीं किया गया, वह इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि उनका रचनाकाल वह समय है जब समाज में स्त्रियों को न के बराबर स्वतंत्रता थी। अमृता स्वयं जिस परिवार से संबंध रखती थीं, उसमें स्त्री अधिक स्वतंत्र थी, समाज के उच्च वर्ग में भी उसे एक सीमा तक स्वतंत्रता प्राप्त थी पर समाज के दूसरे वर्गों में स्त्री स्वतंत्रता एक स्वप्न थी। अमृता ने अपनी कला में ऐसी ही स्त्रियों की स्थिति को अधिक रचा है। उदाहरण के लिए हम उनकी मिर्च बीनती स्त्रियों की पेंटिंग में देख सकते हैं। उसमें स्त्रियां काम कर रही हैं पर पास ही एक आदमी है। उस आदमी की उपस्थिति इस बात की तरफ इशारा कर रही है कि वह उन काम कर रही स्त्रियों पर नजर रख रहा है। इसी तरह का चित्रण एक अन्य चित्र में है जिसमें कुछ स्त्रियां अपने बच्चों के साथ हैं और आपस में बातचीत करती दिखाई देती हैं। उनसे दूर दरवाजे पर एक आदमी खड़ा उनकी तरफ देख रहा प्रतीत होता है। क्या इसे तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्वतंत्रता के बाधित होने की प्रतिकात्मक अभिव्यक्ति नहीं माना जाना चाहिए?
इसी प्रकार उनका एक चित्र है हल्दी पीसती औरतें। इस चित्र में दो औरतें हल्दी पीस रही हैं और उनके पास एक लड़की बैठी है। इस सामान्य से चित्र संयोजन में विशेष बात तब उत्पन्न होती है जब चित्र में पेड़ के पीछे एक और स्त्री दिखाई देती है। यह स्त्री कुछ कर नहीं रही है और उसका चेहरा ढंका हुआ है। उसने अपने चेहरे पर हाथ रखा हुआ है जैसे वह दुखी हो। चित्र में इस तीसरी स्त्री की उपस्थिति क्या समाज के जातीय वर्गीकरण की तरफ इशारा है, इस बारे में सिर्फ संकेत को ही समझा जा सकता है। इसी प्रकार जिस पेंटिंग में एक दुल्हन के श्रृंगार का चित्रण है उसमें भी देख सकते हैं कि दुल्हन या उसे सजा रही स्त्रियों के चेहरे पर किसी प्रकार का उल्लास का भाव नहीं है। ऐसा क्यों है इसपर विचार किया जाना चाहिए। उल्लासहीन या उदासीन चेहरे अमृता शेरगिल के चित्रों में अक्सर तब आते हैं जब वह भारतीय स्त्रियों का चित्रण कर रही होती हैं। जब उन्होंने अपने पारिवारिक लोगों के या दूसरे लोगों के चित्र रचे हैं, यहां तक कि अपने आत्मचित्र में भी, चेहरों पर उल्लास है। क्या इसके कोई सामाजिक निहितार्थ हैं इसपर भी विचार करने की आवश्यकता है।
अमृता शेरगिल को अपने अल्प जीवन में बहुत ज्यादा चित्रों की रचना करने का अवसर नहीं मिला फिर भी उनके यहां हमें नगरीय भूदृश्यों की रचना भी मिलती है। स्त्रियां उनकी कला के केंद्र में हमेशा रहीं। ऐसा नहीं कि उन्होंने पुरुषों को केंद्र में रखकर चित्र नहीं रचे पर उनकी संख्या कम है। ऐसे ही एक चित्र में उन्होंने ब्रह्मचारी आश्रम वासियों का चित्रण किया है जिसमें उनके मनोभाव उनकी वास्तविक मनस्थिति की तरफ संकेत करते हैं। 5 दिसंबर 1941 को अमृता शेरगिल के जीवन का कैनवास पूरा हो गया। अविभाजित भारत के लाहौर में उन्होंने अंतिम सांस ली।
*सभी चित्र गूगल से साभार लिये गये हैं। इन चित्रों का प्रयोग केवल लेख के संदर्भ के लिए है। इनका किसी प्रकार का व्यावसायिक इस्तेमाल करना उद्देश्य नहीं है।
Friday, 22 November 2024
मणिकर्णिका आर्ट गैलरी महिला कलाकारों की प्रदर्शनीः डॉ. वेद प्रकाश भारद्वाज
मणिकर्णिका आर्ट गैलरी द्वारा दिल्ली के आईटीओ स्थित प्यारेलाल भवन में एक महीने का आर्ट फेयर आयोजित किया गया है जिसमें दस समूह प्रदर्शनियों का आयोजन किया गया है। इस श्रृंखला में 22 नवंबर 2024 को महिला कलाकारों की तीन दिवसीय समूह प्रदर्शनी का उद्घाटन किया गया। प्रदर्शनी में देशभर से आई दो दर्जन से अधिक महिला कलाकारों की पेंटिंग्स और शिल्प प्रदर्शित की गई हैं। यह प्रदर्शनी इस अर्थ में उल्लेखनीय है कि दिल्ली में महिला कलाकारों पर केंद्रित प्रदर्शनी लम्बे समय बाद देखने को मिली है। पिछले दिनों एक निजी गैलरी ने ऐसी प्रदर्शनी की थी पर उसमें बड़े और लोकप्रिय नामों की अधिकता थी। भारतीय समकालीन कला में अनेक ऐसी महिला कलाकार हैं जो महानगरों से दूर छोटे शहरों में रहकर भी कला कर रही हैं। इस प्रदर्शनी में ऐसी ही महिला कलाकारों का काम देखने को मिला है।
समकालीन भारतीय कला में या कला बाजार में भले ही यह महिला कलाकार कोई बड़ा नाम नहीं रखती हैं पर अपनी सृजनात्मकता से वह भारतीय कला के पक्ष में एक सकारात्मक वातावरण बनाती हैं। इन कलाकारों में कामकाजी महिलाओं से लेकर सामान्य गृहणियां तक शामिल हैं। इनके बीच उम्र का भी फासला है पर कुछ रचने का, अपनी बात कहने का हौसला इन्हें एक करता है। मानवीय आकारों से लेकर प्रकृति के सौन्दर्य, और अमूर्त चित्र और शिल्प इस प्रदर्शनी में हैं। इन कलाकृतियों में भावनाओं का उजास है और निजी अनुभूतियों की चमक भी। यह कलाकृतियाँ रचनाकार और दर्शकों के बीच एक मौन संवाद को जन्म देती हैं, ऐसा मौन संवाद जिसमें अर्थ की अनेक परतें खुलती दिखाई देती हैं।
महिला कलाकारों की उपस्थिति को दर्ज करती यह प्रदर्शनी वर्तमान कला परिदृश्य में एक जरूरी हस्तक्षेप है जो इस विचार को सामने रखती है कि कला के क्षेत्र में उन्हें कम नहीं आंका जा सकता। प्रदर्शनी में शामिल ज्यादातर कृतियां कलात्मकता और अभिव्यक्ति के स्तर पर अपनी उत्कृष्टता से प्रभावित करती हैं।
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